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________________ हमारी चेतना की परिणति भी बिल्कुल ऐसी ही है, जहाँ हम लोगों के हाथ में केवल पत्ते लगे हैं, क्योंकि मिट्टी हमने हटाई नहीं है। कई बार खेतों में जाते रहे, वापस आते रहे। बार-बार धर्म और अध्यात्म की यात्राएँ करते रहे, लेकिन इसके बावजूद वापस लौटकर आते रहे। अन्तस् के आकाश में उतरने का एकमात्र मार्ग ध्यान है, लेकिन यह न समझना कि पहले दिन ध्यान करने बैठे और सब कुछ पा लोगे। ऐसा होता है। लोग आते हैं और कहते हैं-क्या बताएँ, जब हम ध्यान करने बैठते हैं, तो मन ज्यादा भटकना शुरू हो जाता है। यह प्रारम्भिक तौर पर होगा ही क्योंकि आप मन को वापस ला रहे हैं-स्वयं के पास । व्यक्ति ताश के पत्ते खेलता है, तो उसका मन ताश के पत्तों से लग जाता है, जब वह ध्यान में बैठता है, तो मन को कोई सूत्र नहीं मिलता और उसकी तरंगें चारों ओर फैलनी शुरू हो जाती हैं। __एक साधक ध्यान की गहराई में उतरकर चिंतन कर रहा है कि मैंने अपने आत्म-तत्त्व को तो पहचान लिया है, लेकिन इसके भीतर जो चुप्पी साधे बैठा है, वह चैतन्य कौन हैं? उसी की पुकार भीतर से उठ रही है-अंतस् के आकाश में, चुप बैठा वह कौन ? महावीर का पहला आगम है-आचारांग। इसकी शुरुआत होती है-के अहं आसि? मैं कौन था, मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ ? ध्यान का मूल लक्ष्य यही है कि व्यक्ति बड़ी तन्मयता के साथ गहराई में उतरकर यह प्रश्न स्वयं से करे। इतनी तन्मयता से कि उत्तर भीतर से आए। रटा-रटाया जवाब नहीं कि मेरे भीतर परमात्मा है। गहराई से किया गया प्रश्न तुम्हें मौलिक जवाब देगा कि मैं कौन हूँ? ध्यान के मार्ग में धैर्य चाहिए, अगर धैर्य खो बैठे, तो समझो सत्य करीब आते-आते हाथ से निकल गया। व्यक्ति अगर अपने जीवन में छोटे-छोटे कृत्यों में भी ध्यान का प्रवेश करा दे, तो इसका परिणाम शुभ ही आएगा। पिछले वर्ष जब जोधपुर में चातुर्मास था, तो एक बहिन ध्यान करने आई। वह बोर्ड परीक्षा की सर्वोच्च वरीयता सूची में आई थी। लोगों ने उससे इस सफलता का राज पूछा कि लाखों परीक्षार्थियों में से आप ही सर्वोच्च कैसे रहीं? क्या आप दिन भर पढ़ा करती थीं? उसने कहा-मैं चौबीस घंटों में से केवल चार घंटे पढ़ती थी, पर जब पढ़ती थी, तो केवल पढ़ती थी। मुझे लगा कि इस बच्ची ने ध्यान के मर्म को समझा है। जीवन के सारे कृत्यों के प्रति इतनी सजगता, इतनी एकाग्रता, इतना विवेक रखो कि तुम्हारा हर कृत्य अपने आप में ध्यान बन जाए। हमारे प्रमाद के कारण, हमारी असजगता के कारण, हमारे भीतर चलने वाले अचैतन्य अन्तस् का आकाश : : 7 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003894
Book TitleMahaguha ki Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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