SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सार्थक हुआ, जिसने केवल स्वयं को ही जलाए रखा। ज्योति का जीवन तभी सार्थक है, जब वह औरों में भी ज्योति का संस्कार दे पाए। तुम ध्यान में जीना चाहते हो, प्रेम ध्यान की सुवास है। यदि हम ध्यान करते हैं, तो मानकर चलो कि प्रेम और सेवा से शून्य ध्यान हमें जीवन में रुक्षता दे बैठेगा। हमारे भीतर जगे एक प्रगाढ़ प्रेम, एक ऐसा प्रेम, जो मस्तिष्क से नहीं अपितु हृदय से जाग्रत हो। हृदय से जगा प्रेम सम्पूर्ण अस्तित्व से हमें जोड़ेगा और तब प्रेम से हमारे अन्तरमन में कुछ पाने की ख्वाहिश न होगी। हमारा प्रेम याचक का प्रेम नहीं, एक सम्राट का प्रेम होगा। फिर दुश्मन भी हमें देखकर निहाल हो जाएगा और हमारे इर्द-गिर्द प्रेम और करुणा की ऐसी सुवास बिखरनी शुरू हो जाएगी, जो कभी महावीर, बुद्ध, जरथुष्ट्र और जीसस के पास रही थी। फिर तो अकारण प्रेम जगेगा, हमारे भीतर। कोई अगर झगड़ा करने आ भी जाए, तो हमारी सौम्यता उसे माफ कर देगी। __ अपनी भावनाओं को औरों के लिए लुटाने का प्रयास करो। यह तुम्हारा सौभाग्य है कि हमें प्रेम पाने और बाँटने का अवसर मिल रहा है। अगर जन्म दिवस है हमारे बच्चे का और हम चाहते हैं कि उसे जन्मदिवस पर शुभकामनाएँ मिले, तो पारिवारिक भोज आयोजित कर धन का अपव्यय करने की बजाय जाओ किसी अनाथालय में, और वहाँ जाकर अपने पुत्र के हाथ से अनाथ बच्चों को भोजन कराओ, जाओ किसी अस्पताल में और मरीजों को फल दो, दवा दो। ऐसा करके हम औरों की सच्ची शुभकामनाएँ पाने के हकदार होंगे। जोत से जोत जगाते चलो, प्रेम की गंगा बहाते चलो। राह में आए जो दीन-दुखी, सबको गले से लगाते चलो।। जिसका न कोई संगी-साथी, ईश्वर है रखवारा। जो निर्धन है, जो निर्मल है, वो है प्रभु का प्यारा। प्यार के मोती लुटाते चलो, प्रेम की गंगा बहाते चलो।। आशा टूटी, ममता रूठी, छूट गया है किनारा। बंद करो मत द्वार दया का, दे दो कुछ तो सहारा। दीप दया के जलाते चलो, प्रेम की गंगा बहाते चलो।। छाया है चहुँ ओर अंधेरा, भटक गई है दिशाएँ। मानव बन बैठा है दानव, किसको व्यथा सुनाएँ। धरती को स्वर्ग बनाते चलो, प्रेम की गंगा बहाते चलो। शान्त मनस् ही साधना : : 117 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003894
Book TitleMahaguha ki Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy