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________________ भक्ति शक्ति है, धर्म कर्म है, ज्ञान मुक्ति का पथ है 1 आत्मा की अनंत यात्रा में, यह तन तो बस रथ है । पथ अनेक हैं, रथ अनेक हैं, एक लक्ष्य दिखाते चलो।। उस विराट में हो विलीन तुम, नित्य ही अलख जगाते चलो ।। कौन है ऊँचा, कौन है नीचा, सबमें वो ही समाया । भेदभाव के झूठे भरम में, ये मानव भरमाया। धर्म-ध्वजा फहराते चलो, प्रेम की गंगा बहाते चलो। सारे जग में कण-कण में है, दिव्य अमर इक आत्मा एक ब्रह्म है, एक सत्य है, एक ही है परमात्मा । प्राणों से प्राण मिलाते चलो, प्रेम की गंगा बहाते चलो ।। अपने जीवन में इस गीत को जितना जी सकते हो, उतना ही जीवन का कल्याण है। शायद देश के हर बच्चे ने इस गीत को गाया है। काश ! इसे गाने के साथ पीया भी गया होता, जीया भी गया होता। संबोधि-सूत्र मनुष्य के जीवन में यही प्रेरणा देता है । 'ज्योत जगाए जोत को, सुखी रहे संसार।' हर अमीर व्यक्ति गरीब का साथी बन जाए और हर सुखी व्यक्ति दुखियों का सहायक, तो इस संसार को सुखी होने से कौन रोक सकता है ? इस दुनिया में गरीबी इसलिए नहीं है कि दुनिया में धन की कमी है, वरन् इसलिए है कि हम एक-दूसरे के सहयोगी नहीं है। अगर एक अमीर व्यक्ति सौ गरीब परिवारों का सहायक बन जाता है, तो दुनिया से आधी गरीबी तो स्वतः मिट जाएगी। संबोधि-सूत्र अपने अंतिम चरण में साधक को शांत- मनस् होने की प्रेरणा दे रहा है। 'शांत मनस् ही साधना, आत्म-शुद्धि निर्वाण ।' मन से मुक्त होओ। शांत मन ही सदा-सर्वदा शांति की फुहारें देता है । ध्यान मन को साधने की प्रक्रिया है । जीवन में कर्म और ध्यान दोनों आवश्यक हैं। ये न समझें कि ध्यान से हमारी सक्रियता निष्क्रियता में रूपांतरित हो जाएगी। कर्म से जीवनयापन होता है, पर जीवन के सत्य का अनुसंधान ध्यान से ही हो पाएगा । हमारे मन की अशांति का सबसे बड़ा कारण है कि पदार्थ हमारे जीवन में सबसे प्रधान बनता जा रहा है। और सच्चाई तो यह है कि हमारी खोज विज्ञान की खोज है, पदार्थ की खोज है। स्वयं के द्वारा स्वयं की तलाश का उपक्रम नहीं किया जा रहा है। हम पदार्थों में इतने ज्यादा उलझ गए हैं कि हमने चेतन सत्ता को ही अस्वीकार कर दिया और ध्यान का उपयोग हृदय-शुद्धि के लिए कम, तनाव मुक्ति के लिए ज्यादा किया जाने लगा 118 महागुहा की चेतना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003894
Book TitleMahaguha ki Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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