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________________ का भाव है। यह उनकी करुणा की जीवंतता है । प्रेम में न तो कोई सज्जन होता है, न कोई दुर्जनं । वह तो सार्वभौम होता है । सब में प्रभुता को निहारकर प्रेम दिया, लिया जाता है सब में देखूँ श्री भगवान हर प्राणी में महाप्राण का, तत्त्व समाया है पहचानें उस परम तत्त्व को, ऐसी दृष्टि दो हम सब हैं माटी के दीये, सबमें ज्योति एक समान । सबसे प्रेम हो, सबकी सेवा, ऐसी सन्मति दो भगवान ।। अनजान | भगवान । देख किसी को मन मैला हो, तो मन में धरें तुम्हारा ध्यान । मन हो जाये पूजा का घर, ऐसी शुद्धि दो भगवान ।। आँखों में हो करुणा हरदम, होठों पर कोमल मुस्कान | हाथों में हो श्रम और सेवा, ऐसी शक्ति दो भगवान || चाहे सुख-दुख, धूप-छाँव हो, चाहे मिले मान-अपमान । व्याधि में भी रहे समाधि, ऐसी बुद्धि दो भगवान ।। द्वेष नहीं, हम वीतद्वेष हों, मंगलमय हो तन-मन प्राण | चन्द्र निहारे सबमें उसको, जो सबका मालिक भगवान || जब हम मंदिर में जाकर किसी पत्थर की प्रतिमा में परमात्मा को स्वीकार कर उसकी पूजा कर सकते हैं, तब इन प्राणियों के अंतरप्राण में बसे उस महाप्राण को स्वीकार कर इनसे प्रेम क्यों नहीं कर सकते ? अपने प्रेम को विस्तार दो, उसे अस्तित्व से जोड़ो। जब तुम अपने बच्चे को प्यार दे सकते हो, तो पड़ोसी के बच्चे के प्रति प्यार क्यों नहीं उमड़ता है। जब किसी फूल को देखकर मुस्करा सकते हो और उसे हृदय से लगा सकते हो तो किसी झुग्गी-झोंपड़ी में रहने वाले किसी बच्चे को देखकर उसे गले लगाने के लिए तुम्हारे अन्तरमन में भाव क्यों नहीं उपजते। हमारा प्रेम सार्वभौमिक हो। हम अपनी खुशियों को बटोरने की बजाय, उन्हें बाँटने का प्रयास करें। इस धरती को धन से स्वर्ग नहीं बनाया जा सकेगा। तुम प्रेम दो, प्रेम लो। सारा जीवन प्रेममय बना दो, यही तो धरती का स्वर्ग होगा । 'ज्योत जगाए ज्योत को, सुखी रहे संसार' । तुम अपने जीवन को ऐसा ढालो कि एक ज्योति अनंत में रूपांतरित हो जाए। उस ज्योत का जलना क्या 116 महागुहा की चेतना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003894
Book TitleMahaguha ki Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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