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________________ विधि की व्यवस्था ही तो है कि जो दिन राम के राज्याभिषेक का था, वही उनके वनवास का दिन बन गया । जब जो होना होता है, वह होता है । जो हो गया, उसके लिए गिला भी मत करो। जो न कर पाए, उसका शिकवा तम पालो । हमसे उतना ही हुआ है, जो हमारी नियति में रहा । अनुचित हुआ, तो भी और उचित हुआ, तो भी, सबकी प्रेरिका नियति रही। हम हर हाल में मस्त रहें, मुक्त रहें । इसीलिए कहा : ‘कर्ता से ऊपर उठें, करें सभी से प्यार' । बड़ा महत्वपूर्ण पद है यह संबोधि-सूत्र का । व्यक्ति कर्तृत्व-भाव से मुक्त हो जाए । जहाँ कर्तृत्व-भाव है, वहाँ कर्म है और जहाँ कर्तृत्व-भाव से मुक्ति है, वहाँ कर्म- मुक्ति है । कर्तृत्व-भ ही तो व्यक्ति को संसार से जोड़ता है। जो कर्त्ता-भाव से मुक्त है, वह सदा मुक्त है । कर्ता-भाव से मुक्त होने के लिए तीन सूत्र दिए जा सकते हैं-विषयों के प्रति अनासक्ति, मनोवृत्तियों के प्रति जागरूकता और सदा साक्षित्व की स्मृति । -भाव चित्त के जो विषय धर्म हैं, वे व्यक्ति को कर्त्ता -भाव के संस्कार देते हैं 1 चित्त-विषयों के प्रति जैसे-जैसे अनासक्ति बढ़ती है, वैसे-वैसे संस्कार बनने बंद हो जाते हैं और संस्कारों में होने वाली कटौती मनुष्य के कर्तृत्व-भाव की कटौती है । असंख्य विषय है चित्त के और साधक साधना के द्वारा धीरे-धीरे उनके प्रति अनासक्ति के भाव पैदा कर सकता है। दूसरा सूत्र है - मनोवृत्तियों के प्रति जागरूकता। यानी अपनी वृत्तियों के प्रति बोध बनाए रखना । मनोवृत्तियों के प्रति जागरूकता से उन वृत्तियों का क्रमशः विसर्जन प्रारम्भ हो जाता है और साक्षित्व की स्मृति से स्वयं में प्रवेश का द्वार खुलता है। 'कर्त्ता से ऊपर उठें, करें सभी से प्यार - सबसे प्रेम हो। हमारा प्रेम सार्वभौम होना चाहिए । जो प्रेम आरोपित होता है, वह कुछ से जुड़ता है और जो प्रेम अन्तरप्राणों से निपजा होता है, वह सबसे जुड़ा होता है। प्रेम तब राग बन जाता है, जब वह डबरा बन जाता है। राग तब प्रेम बन जाता है, जब वह डबरे से सागर बन जाता है। एक अनुस्यूत प्रेम है और एक आरोपित प्रेम | आरोपित प्रेम निमित्त पाकर सक्रिय होता है । और आत्मिक प्रेम महावीर, बुद्ध 1 और जीसस की तरह सदा-सर्वदा अन्तरप्राणों में प्रवाहित रहता है । यह मानवीय प्रेम की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है कि यदि जीसस को क्रॉस पर भी लटकाया जाए, तो वह प्रभु से प्रार्थना करते हैं- प्रभु ! इन्हें माफ कर । महावीर के कानों में कोई कीलें भी ठोकें तो भी उनकी चेतना प्रमुदित रहती है । बुद्ध की अगर कोई वेश्याओं से बदनामी भी करवा दे, तो भी उसके प्रति सात्विकता Jain Educationa International शान्त मनस् ही साधना : 115 For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003894
Book TitleMahaguha ki Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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