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हो जाती है, लेकिन तुम उस पर्वत-शिखर पर पहुँच जाते हो जहाँ से नीचे चारों ओर जो हो रहा है, उसे मात्र साक्षी-भाव से देखते हो।
इसलिए कहा 'बसें नियति के नीड़ में'-जो विधि की व्यवस्थाएँ होनी हैं, हो रही हैं। तुम केवल इन्हें सहज भाव से स्वीकार करो। अगर मीरा जहर को प्रभु का प्रसाद मानकर स्वीकार कर लेती हैं, तो वह अमृत बन जाता है। वैसे ही अगर तुम जीवन में मिलने वाले दुःख को भी प्रभु का प्रसाद मानकर स्वीकार कर लो, तो वह दुख सुख में बदल सकता है। रूपांतरण की यह कीमिया है। ____ हानि-लाभ जीवन-मरण, यश-अपयश हरि हाथ।' जब जीवन ही प्रभु का प्रसाद है, तो जीवन में मिलने वाली सुविधाओं और असुविधाओं को हम उनका प्रसाद मान कर क्यों नहीं स्वीकार कर सकते हैं। प्रभु को धन्यवाद दो। हर क्षण धन्यवाद से भरे रहो। जैसे ही आँख खुले, परमात्मा के प्रति अहोभाव से तुम्हारा हृदय भर जाए। प्रभु की कृपा, आज फिर जीवन मिला। हर दिन हमारा नया जीवन है। अगर तुम्हें कोई एक गिलास ठंडा पानी पीने को दे, तो उसे तुम धन्यवाद देते हो, लेकिन जिसने यह जीवन दिया, इसके प्रति कभी धन्यवाद समर्पित कर पाए हो? मंदिर में भी जाकर हमने सदा-सर्वदा परमात्मा की प्रार्थना करते हुए अपनी शिकायतों का पुलिंदा ही पेश किया है। मुझे यह न मिला, मेरा यह छिन गया। तुम्हारी प्रार्थना प्रभु की प्रार्थना नहीं, प्राप्ति की प्रार्थना है। प्रार्थना, प्रार्थना ही रहनी चाहिए। उसमें याचना न हो। इसलिए सदा-सर्वदा अपनी नियति को साधुवाद ही देते रहो और जीवन को प्रभु का प्रसाद मानकर अहोभाव से जीने का प्रयास करो।
'विधि का विधान जान, हानि-लाभ सहिये,
जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए। जैसा राम रखे वैसा ही ठीक है। सूत्र का अगला चरण है-'भले जलाए होलिका, जल न सके न प्रहलाद'-होलिका लाख कोशिश करले लेकिन अगर प्रहलाद को बचना है, तो वह बचेगा ही और अगर जल मरेगी तो होलिका ही जलेगी। विधि-व्यवस्था के सामने तो हर कोई असहाय ही होता है। सिकन्दर जो विश्व-विजेता कहलाता था, भरी जवानी में उसकी मृत्यु को कोई टाल थोड़ी सका। जिस सीता के अपहरण हो जाने पर राम स्वयं युद्ध करते हैं, विधि की व्यवस्था तो देखो कि उसी को राम निर्वासित भी करते हैं। यह
114 : : महागुहा की चेतना
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