________________
अगर जीवन की हर अच्छी-बुरी घटना को यह मानकर चलो कि जो हो रहा है, अच्छा ही हो रहा है, तो शायद हम कभी दुखी, पीड़ित और क्लांत होने से बच सकते हैं। आज के सम्बोधि-सूत्र के वचन हमें कर्ता-भाव से मुक्त करते हुए विधि की व्यवस्था या नियति की व्यवस्था को स्वीकार करने का संदेश दे रहे हैं। एक साधक के लिए तो यह काफी कीमती सूत्र हैं। संबोधि-सूत्र के इन अंतिम पदों का हम बूंद-दर-बूंद अमृतपान करने का प्रयास करें, तो ये अमृत-सूत्र हमारे जीवन को अमृत-धर्मा बना सकते हैं। आज के सूत्र हैं
बसें नियति के नीड़ में, प्रभु का समझ प्रसाद। भले जलाए होलिका, जल न सकें प्रहलाद ।। कर्ता से ऊपर उठें, करे सभी से प्यार। ज्योत जगाए ज्योत को, सुखी रहे संसार ।। शांत मनस् ही साधना, आत्म-शुद्धि निर्वाण।
भीतर जागे चेतना, चेतन में भगवान ।। साधक को अगर साधना के मार्ग पर बिना रुकावट बढ़ना है, तो यह सूत्र उसके लिए पाथेय है। 'बसें नियति के नीड़ में, प्रभु का समझ प्रसाद'-जीवन की समस्त व्यवस्थाओं को अपनी नियति और प्रभु का प्रसाद मानकर अगर स्वीकार कर लेता है, तो उस व्यक्ति को जीवन में कभी भी खोने पर हीनता
और पाने पर महानता की अनुभूति नहीं होती। अपने अहम् को अर्हम् में और स्वयं को सर्व में ढाल दिया जाए, तो अहम् भाव स्वतः विगलित हो जाता है।
साक्षी-भाव ध्यान की मूल आत्मा है और इसके लिए आवश्यक है कि हम विधि के विधान को प्रेम-भाव के साथ स्वीकार कर लें। साक्षित्व का मतलब ही यही है कि व्यक्ति कर्तृत्व-भाव से मुक्त होकर दृष्टा-भाव में आ गया है। जो हो रहा है, उसे प्रेम-भाव से स्वीकार कर रहा है। साक्षित्व ध्यान का मूल प्राण है, और साक्षित्व के लिए नियति पर अपनी दृष्टि बनाए रखना आवश्यक है। साक्षित्व का मतलब है कोई क्रिया नहीं, कोई विचार नहीं कोई भाव नहीं। मात्र तुम स्वयं में बसे हो। एक शुद्ध-संतुष्ट दशा। ध्यान का मतलब न तो कर्म के विपरीत होना है और न ही जीवन से पलायन । ध्यान का मतलब है कि तुम्हारा जीवन गतिशील है। इतना अधिक गतिशील है कि पहले तुम में जितनी प्रगाढ़ता थी, जितना आनंद था और जितनी सृजनात्मकता थी, उसमें बढ़ोतरी
शान्त मनस् ही साधना : : 113
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org