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है और मरने के बाद वह नाम शरीर के साथ ही खत्म हो जाता है। और, आदमी इस भौतिक नाम को फैलाने के लिए, इसे प्रसिद्धि देने के लिए असंख्य चेष्टाएँ करता है। वह उस नाम को, उस तत्त्व को जानने की चेष्टा नहीं करता, जो सौ-सौ दफ़ा मर जाने के बावजूद सचेतन रहता है, जाग्रत रहता है।
माता-पिता हमारे जन्म के सांयोगिक आधार हैं और मृत्यु भी एक संयोग ही है। लोग कहते हैं जब देह की अन्त्येष्टि हो गई तो काम पूरा हो गया। नहीं, अब तक तो केवल शरीर का काम पूरा हुआ है, क्या आत्मा का काम भी पूरा हो गया होता है? यह चेतना तो हजारों-हजार दफा मृत्यु के द्वार से गुजर जाने के बाद भी वैसी की वैसी शाश्वत रहती है। इसी चेतना को, इसी मूल तत्त्व को चीस लेने का, पहचान लेने का नाम ध्यान है। इसी का नाम संबोधि है और इसी का नाम आत्म-उत्सव और आत्म-आनंद है। कबीर कहते हैं
चलती चक्की देखकर, दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय ।। संसार की चक्की चलती है और कोई भी दाना जन्म-मृत्यु के दो पाटों के बीच में साबुत नहीं बच पाता, फिर भी कुछ दाने चक्की में बच जाते हैं। क्या आपने सोचा कि वे दाने चक्की में कहाँ रहे? वे दाने चक्की की कील से चिपके रहे, जिससे वे बच गए। जिस दाने को कील का, जिस व्यक्ति को संसार की चक्की में ध्यान का सहारा मिल गया, वह कभी पिसने वाला नहीं। हम सबके लिए, जो प्रभुता के मार्ग को पकड़ना चाहते हैं, समाधि के मार्ग पर अग्रसर होना चाहते हैं, यह जरूरी है कि आत्म-कील को पकड़ लें। यह कील हमें संसार की चक्की के पाटों से बचाए रखेगी, हमें सुरक्षा प्रदान करेगी।
व्यक्ति को कील का सहारा तभी मिल पाता है, जब वह अपने आत्मजगत में प्रवेश करने की कोशिश करता है। अध्यात्म का अगर कोई पहला या अंतिम मार्ग है, तो वह ध्यान है। व्यक्ति अपने आत्मतत्त्व को जान ले, यही ध्यान की उपलब्धि है। अगर खुद को पहचान लिया, आत्मबोध प्राप्त कर लिया और सारी दुनिया को न भी जान पाए, तो कुछ जानना शेष न रहा। इसके विपरीत, अगर सारी दुनिया को जान लिया, लेकिन खुद को न जान पाए तो कुछ भी नहीं जान पाए। सारी क्रियाओं का, सारी उपाधियों का, सारी विधियों का तो ज्ञान प्राप्त कर लिया, लेकिन खुद का ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाए, तो मेरे प्रभु, सब कुछ जानकर भी अज्ञान में ही रह गए। परम ज्ञानी, सर्वज्ञ वही बन
अन्तस् का आकाश
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