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झेन फकीर बाइज़ीद अपनी कुटिया में बैठे थे। एक अतिथि उनसे मिलने कुटिया के बाहर पहुँचा। कुटिया का दरवाजा भीतर से बंद था। अतिथि ने चार-पाँच दफा आवाज़ लगाई, मगर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। उसने फिर आवाज़ दी-भीतर कौन है ? उसने दरवाजा भी खटखटाया, मगर न कुटिया से आवाज़ आई और न दरवाजा खुला । थक-हारकर आगन्तुक वहीं बैठ गया।
सांझ ढलने को आई, तो दरवाजा खुला और संत बाइज़ीद बाहर आए। आगन्तुक ने प्रणाम किया और पूछा-सद्गुरु, मैंने एक बार नहीं, सौ-सौ बार पूछा कि भीतर कौन है, मगर कोई जवाब नहीं दिया। संत मुस्कराए और कहने लगे-वत्स, मैं भीतर बैठा यही जानने की कोशिश कर रहा था कि 'भीतर कौन है ?' जब तक मेरे भीतर से आवाज न आ जाए कि भीतर कौन है, तब तक मैं क्या जवाब देता?
साधना का प्रारम्भ, साधना का मध्य और साधना की पूर्णता इसी बात में निहित है कि भीतर कौन है ? जहाँ इस सत्य की तलाश शुरू हो गई, समझो वहाँ साधना प्रारम्भ हो गई; व्यक्ति अगर इस तथ्य के करीब पहुँच गया कि भीतर कौन है, जिसे यह ज्ञात हो गया कि भीतर कौन है, समझो उसकी यात्रा पूर्ण हो गई। दुनिया में साधना की चाहे जितनी विधियाँ रही हों, हर विधि-हर पद्धति का मूल-उत्स ध्यान है। ध्यान मार्गों का मार्ग है।
ध्यान के द्वारा व्यक्ति इस बात की प्रतीति करता है कि भीतर कौन है, मैं कौन हूँ, मेरा अस्तित्व क्या है ? ध्यान वास्तव में व्यक्ति की अंतर्यात्रा की एक प्रक्रिया है। जैसे बाहर की यात्रा को प्रारम्भ करने के लिए और उसे पूर्णता देने के लिए बाहर के साधन होते हैं, वैसे ही भीतर की यात्रा को पूर्णता देने का भी साधन है और वह साधन है ध्यान । अगर व्यक्ति ध्यान से चूक रहा है; अपनी चेतना की प्रतीति से छूट रहा है; आत्म-संबोधि, आत्म-सुवास और आत्म-चेतना के करीब नहीं पहुँच पा रहा है, तो इसका अर्थ हुआ कि उसके भीतर की यात्रा अभी तक प्रारम्भ नहीं हुई है।
आदमी संसार में जन्मता है और संसार में ही मर जाता है। वह इस तथ्य की ओर आँखें मूंदे रहता है कि जन्म से पहले हम कौन थे, मर जाने के बाद हम क्या होंगे? वास्तविकता यही है कि जन्म लेने से पूर्व भी हमारा अस्तित्व था और मर जाने के बाद भी हमारा अस्तित्व रहेगा, लेकिन हमने अपने अहंकार और पुद्गल तत्त्वों के प्रति पलने वाली आसक्ति के चलते अपने इस अस्तित्व को नकार दिया है। जन्म लेने के बाद व्यक्ति का कुछ भी नाम दे दिया जाता
2 : : महागुहा की चेतना
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