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अन्तस् का आकाश
आज से हम एक नए अध्याय की शुरुआत कर रहे हैं, अध्यात्म के अध्याय की। अध्याय के शब्द बहुत सीधे-सरल हैं, किन्तु जितना गहरा अध्यात्म है, उतना ही गहरा यह अध्याय है। विश्व के धरातल पर कभी-कभी ही खुलते हैं ऐसे अध्याय, कभी-कभी ही उभरते हैं ऐसे क्षितिज, कभी-कभी ही बरसता है ऐसा अमृत। आज हम जिस क्षितिज की ओर अपने कदम बढ़ा रहे हैं वह इस अध्यात्म के अध्याय के माध्यम से मेरी ओर से दिया जाने वाला इशारा भर होगा, संकेत भर होगा। अध्यात्म तो आकाश की भांति है। अनन्त है यह। जो इसमें अवगाहन करता है, जो इसमें उड़ान भरता है, जो इससे पुलकित होता है वही आकाश की थाह को जीत सकता है, माप सकता है।
संबोधि-सूत्र एक नव्य, किन्तु भव्य, अध्यात्म की रचना है, अध्यात्म का अध्याय है। अवश्य ही रचनाकार बहुत गहरा डूबा होगा, अनन्त आकाश में उतरा होगा, तभी ऐसी रचना निष्पन्न हुई है। सागर ने इतने चमकीले मोती हर साधक के हाथ में सौगात के रूप में दिए हैं। आकाश ने कुछ मेघ-पुष्प बरसाए हैं और हमें सुवासित और आह्लादित होने का, आकंठ रसपान करने का मौका और निमंत्रण दिया है।
___ संबोधि-सूत्र जिसे मैं खास तौर पर आप लोगों को संबोधित करने के लिए ले रहा हूँ, अपने आप में संबोधि का निर्झर है, जीवन में संबोधि के सरोवर तक पहुँचने का राजमार्ग है। आदमी अनजान ही है अपने आप से। अगर आदमी को पहचानना है कि 'मैं कौन हूँ तो संबोधि-सूत्र हमारे आत्मिक जीवन के रहस्य भरे कई पर्दे उघाड़ सकता है। जगत को जाना तो क्या जाना, अगर अपने से अनजाने रहे।
अन्तस् का आकाश : : 1
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