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लेने पर भविष्य की चिंता नहीं करनी होती । तब तुम एक सुखद मोड़ पर खड़े होते हो। इसलिए वर्तमान के प्रति सजगता, होश और सावधानी रखो । हर पल, हर क्षण अपने बोध को जगाए रखो। फिर जो कुदरती घटता है, वह घटने दो। तब तुम पाओगे कि यहाँ अनहोनी कुछ भी नहीं है । सब कुछ हो सकता है क्योंकि तुम्हारे लेख में वही लिखा है, जो बेहतर है । यह सोचकर दुखी मत होओ कि तुम्हारा पच्चीस वर्ष का बेटा काल-कवलित हो गया, भगवान से गिला भी न करो, क्योंकि ऐसा होना भाग्य का ही एक होनहार था । हाँ, इससे प्रेरणा जरूर ले सकते हो कि तुम्हारा जीवन भी अब कितना शेष रह गया है। तुम भी महाप्रयाण की ओर कदम बढ़ा रहे हो। जिस दिन भी बुलावा आ जाए। तो रंज न करो यह तुम्हारे भाग्य का ही खेल है। तुम जागो और देखो कि कल को यह शरीर भी अपने-अपने तत्त्वों में मिल जाने वाला है I
मैं देखता हूँ और आश्चर्यचकित भी होता हूँ कि एक व्यक्ति अपने दादा को, अपने पिता को, अपनी पत्नी को और यहाँ तक कि अपने बेटे को भी मुखाग्नि दे चुका होता है, फिर भी उसकी चेतना में आत्म-सजगता के चिह्न दिखाई नहीं देते। क्या तुम्हारी आत्मा इतनी मूर्च्छित हो चुकी है कि उसमें कोई हलचल ही नहीं होती या तुम इतने निस्पंद हो गए हो कि घटनाओं के स्पंदन महसूस ही नहीं कर पाते ? मुझे याद आता है चंडकौशिक सर्प । जो भयानक विषधर था जिसकी फुंकार से पेड़ों के पत्ते भी पीले पड़ जाते थे 1 उसने ध्यानस्थ महावीर के अंगूठे में डंक मार दिया । अंगूठे से दुग्ध-धार बह निकली और महावीर ने केवल एक शब्द कहा- 'चंडकौशिक बुज्झ' - चंडकौशिक बोधि को प्राप्त कर और तिर्यंच योनि के जीव सर्प की चेतना रूपांतरित हो गई। वह चंडकौशिक- भद्रकौशिक बन गया । क्रोध का अवतार शांत और क्षमा की मूर्ति हो गया । और तुम तो मानव हो, इंसान हो तुम्हें कोई चोट नहीं लगती जो चेतना को रूपांतरित कर सके ? हम अपने भीतर टटोलें कि ऐसा क्या है जो सत्य को जानने के बाद भी हम सत्य का आचमन नहीं कर पाते 1
धर्म-सभाओं में जाकर सत्य की बातें सुन लेते हैं, वक्ता बनकर सत्य के बारे में चर्चा कर लेते हैं लेकिन जब इसी सत्य की बात जीवन में आचरण पर आती है तो हम ठिठक क्यों जाते हैं ? सत्य की बातें करना जितना सहज, सरल है आचरण में लाना उतना ही दूभर व दुरूह है। अच्छी बातों की अभिव्यक्ति तो बहुत आसान है, पर उन्हीं को जीवन में उतारना बहुत मुश्किल हो जाता है । ऐसा क्यों होता है? क्योंकि हमने जो भी ग्रहण किया वह बाहर ही रह
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साक्षी हों वर्तमान के 105
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