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आसन जमाना और उपनिषद् का अर्थ है स्वयं के निकट आना। निषद् अर्थात् निकट । व्यक्ति उपवास के माध्यम से अंतरात्मा के निकट जाता है।
यदि हम धर्म, अध्यात्म के संदेशों को अन्तरहृदय में उतरने देते हैं, तो हमें आत्मिक शांति की अनुभूति होगी और हम आनन्द तथा अहोभाव से भर उठेंगे। शर्त केवल यही है कि रस में अवगाहन करें, ऊपर से न बह जाने दें। तब तुम्हें सौ वर्ष तक जीने की आवश्यकता नहीं होगी, दस वर्षों में ही तुम्हें जीवन की सत्यता का अनुभव हो जाएगा। जीवन कितना जीये, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि कितनी गहराई से जीये।
हम जिन संबोधि-सूत्रों में उतर रहे हैं, उनमें निरन्तर विकास हो रहा है। वह हिमालय की शांत गुफा में बैठा हुआ साधक, अपने अन्तस् की गुफा में उतर कर आत्मलीन चेतना भीतर के ही आकाश में विचरण कर रही है। वह आत्मलीन चेतना मनुष्य को दिव्य संदेश दे रही है। ये संदेश कोहिनूर की तरह कीमती हैं। अगर इन संदेशों को, इन हीरों को स्वीकार कर सके तो वे हीरे जीवन को उज्वल कर देंगे। आज के सूत्रों का मूल भाव यही है कि व्यक्ति अपने अतीत और भविष्य से मुक्त हो जाये और वर्तमान में स्थित होकर अपनी चेतना से पहचान करे, अन्तर्वृत्तियों का रूपान्तरण करके भीतर के रहस्यों को ज्ञात करे। संबोधि-सूत्र के अभिनव पद हैं
बीते का चिंतन न कर, छूट गया जब तीर। अनहोनी होती नहीं, होती वह तकदीर।। करना था क्या कर चले? बनी गले की फांस। पंक सना पंकज मिला, बदलें अब इतिहास ।। सच का अनुमोदन करें,, दिखें न पर के दोष ।
जीवन चलना बांस पे, छूट न जाए होश।। 'बीते का चिंतन न कर, छूट गया जब तीर'-जो समय तुम्हारे हाथ निकल गया है वह लाख प्रयास करने पर भी तुम्हारे पास वापस आने वाला नहीं है। तुम अपने रूठे हुए देवता को मना सकते हो, लेकिन गुजरे हुए समय को नहीं लौटा सकते। जो तीर कमान से छूट गया, वह चाहे लक्ष्य भेद न कर पाये, पर वापस आने वाला नहीं है। इसलिए जो समय चला गया, न तो उसके विषय में सोचो और न ही अफसोस करो क्योंकि अब कुछ होने वाला नहीं है। हाँ, हो सकता है अगर तुम वर्तमान को देखो तो कुछ हो सकता है। वर्तमान में आ जाओ तो शायद भविष्य में तुम्हें दुखी न होना पड़े। वर्तमान को सुधार
104 : : महागुहा की चेतना
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