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आकाश तुम्हें, तुम्हारी स्वतंत्रता के लिए निमंत्रण दे रहा है। तुम्हीं ने राग पाल-पोस रखा है सोने के पिंजरों से। निश्चय ही, पिंजरे सोने के हैं, सुहावने हैं, लेकिन यह तुम कब समझ पाओगे कि ये पिंजरे, पिंजरे नहीं, तुम्हारा घर नहीं, ये तुम्हारे मन का कारागार है। तुमने अपने ही हाथों से पर काट लिये हैं, पर जिसके टूटे हैं, कटे हैं, वह अनन्त गगन में छलांग कैसे भर पाएगा, आकाश भर आनंद कैसे उठा पाएगा, तुम मन के पार लगो, उन्मनी अवस्था को उपलब्ध होओ। पांख भले ही छोटी हो, तुम ज्यों-ज्यों आकाश में उड़ने की भावना से ओतप्रोत होते जाओगे, त्यों-त्यों पांख भी बढ़ जाएंगे। तुम उड़ो, आकाश तुम्हें पुकार रहा है। स्वतंत्रता तुम्हारा आह्वान कर रही है।
सूत्र का अगला चरण है 'हर मानव से प्रेम हो, हो चैतन्य-विकास। अगर तुम संबोधि को उपलब्ध करना चाहते हो, तो तुम अपने प्रेम का विस्तार करो। सर्वप्रथम यह देखो कि तुम्हारा प्रेम तुम्हारे निजी स्वार्थ से तो नहीं जुड़ा है। एक प्रसंग आपने सुना होगा कि एक बंदरिया अपने बच्चे को अपनी पीठ पर लिए जा रही थी। तभी बाढ़ आई। वह आगे बढ़ी तो पानी गले तक आ गया। उसने बच्चे को कंधे पर बिठा लिया। पानी नाक तक आ गया, तो उसने बच्चे को पानी में डाल दिया और स्वयं उस पर खड़ी हो गई। देखो कि तुम्हारा प्रेम इतना संकीर्ण तो नहीं है ?
जब तक तुम्हारे स्वार्थ की पूर्ति उस प्रेम से होती रहेगी, तब तक प्रेम कायम रहेगा और जैसे ही स्वार्थ की पूर्ति होनी बंद हुई, तुम्हारे प्रेम में कटौती हो जाएगी। चाहे तुम सगे भाई-भाई हो, पति-पत्नी हो, माँ-बाप हो, जब तक परस्पर स्वार्थ सधता रहेगा, प्रेम का प्रदर्शन चलता रहेगा और जैसे ही व्यक्ति का स्वार्थ सधना बंद हुआ कि प्रेम रफूचक्कर हो गया। सबसे पहली आवश्यकता है कि तुम अपने प्रेम का विस्तार करो। अगर तुम कहते हो कि 'वसुधैव कुटुंबकम्'-सारी पृथ्वी मेरा आत्मीय कुटुम्ब है, तो इसके लिए आवश्यक है कि तुम अपने पड़ौसी की भी हर मुसीबत में, उसके हर गम में हमदर्द बनो, उसे सहयोग दो। अगर प्रेम का विस्तार हो जाए, तो दुनिया के अधिकांश कट्टरवादी पंथ-सम्प्रदाय अकाल धराशायी हो जाएंगे और एक नई सोच का उदय होगा, जो मानव को मानव से जोड़ेगा और कट्टरताओं का विलय होगा। यह तभी सम्भव है जब हम अपने प्रेम का विस्तार करें। अब तक हम जितने भी जीएं हैं, वे मात्र दो-पाँच, दस-बीस लोगों के लिए जीएं होंगे। काश, हम सारे छ: अरब लोगों के लिए भी जी पाएं। अगर हम सम्पूर्ण अस्तित्व पर प्रेम न्यौछावर करते हैं, तो सारे अस्तित्व से प्रेम हम पर बरसेगा।
प्रेम का विस्तार : : 97
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