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________________ 'आत्मोत्सव के रंग में, भीगी हो हर सांस।' तुम अपने भीतर आत्मोत्सव का ऐसा रंग जमाओ, ऐसा फागुन खेलो कि तुम्हारी हर सांस परमात्म-उत्सव से भीगी हुई रहे। संबोधि का पहला चरण यही होता है कि व्यक्ति साक्षीभाव से, दृष्टा-भाव से अपनी एक-एक श्वास को निहारता रहे और हर उस श्वास में ॐमय, परमात्ममय दिव्यता को भीतर उतारने की कोशिश करे। हमारे शरीर में शरीर और आत्मा का जिस तत्त्व से सम्बन्ध स्थापित होता है, वह तत्त्व श्वास ही है। अगर वह श्वास निर्मल है, परमात्म-रंग से भीगी हुई है तो निश्चित तौर पर उसका बसेरा तुम्हारी श्वास-श्वास में, रोम-रोम में हो जाएगा, तुम्हारी सम्पूर्ण चेतना में हो जाएगा। __ अपने प्रेम को लुटाओ, अपने प्रेम को कुर्बान करो। जो प्रेम का जितना विस्तार करता है, जितना प्रेम को बांटता है, उतना ही प्रेम उस पर लौटकर आता है। बादल से जितना पानी बरसता है, वह सब उसे सागर से मिलता है, लेकिन पानी को न्यौछावर करके क्या सागर का पानी कभी सूखता है ? नहीं, तुम अपने प्रेम का विस्तार करो, अपने प्रेम को फैलाओ। उसका परिणाम यह होगा कि तुम सारी धरती के लिए हो जाओगे और सारी दुनिया तुम्हारी हो जाएगी। होना होता है जिनको अमर, वे लोग तो मरते ही आए। औरों के लिए जीवन अपना, बलिदान जो करते ही आए।। धरती को दिये जिसने बादल, वो सागर कभी न रीता है। मिलता है जहाँ का प्यार उसे, औरों के जो आँसू पीता है।। क्या मार सकेगी मौत उसे, औरों के लिए जो जीता है। मिलता है जहाँ का प्यार उसे, औरों के जो आँसू पीता है।। जिसने विष पिया, बना शंकर, जिसने विष पिया, बनी मीरा। 98 : : महागुहा की चेतना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003894
Book TitleMahaguha ki Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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