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हैं, इन बंधनों में भी बड़ा रस आ रहा है। थोड़ा और पी लूं। जितनी बार मिट्टी से मिट्टी का खिलवाड़ होता है, क्षण भर के लिए वैराग्य पैदा होता है और फिर इसी संसार के प्रपंचों में जा डूबते हैं। संबोधि-सूत्र के पद हैं
सोने के ये पिंजरे, , मन के कारागार। टूटे पर कैसे उड़े, नभ में पंख पसार।। हर मानव से प्रेम हो, हो चैतन्य-विकास। आत्मोत्सव के रंग में, भीगी हो हर सांस ।। कालचक्र की चाल में, बनते महल-मसान। फिर मन में कैसा गिला, सदा रहे मुस्कान।।
एक साधक जो महागुफा में प्रवेश कर चुका है, जो जीवन की वीतरागता के करीब पहुंच चुका है, साक्षी और दृष्टा बनकर वह मनुष्य की अंतरंग वृत्तियों को, उसके मन को निहार रहा है। वह देखता है कि व्यक्ति अपने जीवन में अपने हाथों सोने का पिंजरा बनाता है और अंततः उसी पिंजरे में, उसी कारागार में उलझकर रह जाता है। धीरे-धीरे वह अपनी बेड़ियों से, अपनी जंजीरों से आसक्त हो जाता है और उन्हें छोड़ने का नाम ही नहीं लेता है। जो बंधन से ही राग कर बैठा, जो बंधनों से आसक्ति बना चुका, भला उसे विराग और वीतराग का संदेश कैसे दिया जाए? वह व्यक्ति बार-बार मार्ग ढूंढ़ेगा, मार्ग के करीब पहुँचेगा और संसार का गुरुत्वाकर्षण उसे वापस खींच लेगा।
मैं यह नहीं कहता कि व्यक्ति वेश बदल ले या संसार छोड़ दे, लेकिन इतना अवश्य कहूँगा कि कम से कम अपने मन के बंधनों को पहचान तो ले। मैंने मनुष्य की वृत्तियों को, उसके विचारों को पढ़ा है। मैंने पाया है कि व्यक्ति भले ही बाह्य रूप से अपने आपको मुक्त महसूस करे, लेकिन उसके अंतरंग में कहीं कोई संसार का सम्मोहन अवश्य छिपा रहता है। जब तक तुम इन सम्मोहनों से मुक्त नहीं हो जाते, तो बाहर के कारागार से कैसे मुक्त हो पाओगे? आप बंधन में हैं और उससे मुक्त होना सहज नहीं है, लेकिन संबोधि-सूत्र के ये पद हमारे लिए वह संदेश, वह मार्ग लेकर आए हैं, जिससे हम बंधन-मुक्त हो सकते हैं।
सोने के ये पिंजरे, मन के कारागार। टूटे पर कैसे उड़े, नभ में पंख पसार ।।
96 : : महागुहा की चेतना
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