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खोलें, अन्तर के पट अज्ञात है । आकाश के लिए मधुरिम संगान सुने काफी हैं, पर क्या पता, वह पिंजरे से खतरनाक हो । पाँवों में जंजीर भले हो, निकासी का द्वार बन्द हो, पर रहने-खाने का तो प्रबन्ध है ही, असुरक्षित तो नहीं है । कौन उड़े अज्ञात में, अज्ञेय में ? लाखों में वही, जो विराट होने का इच्छुक है, स्वयं के पंखों की क्षमता से विराटता को आत्मसात् करना चाहता है ।
कहते हैं, एक राहगीर किसी मुसाफिरखाना में रुका | वह रात को बिस्तर पर सोया ही था कि कमरे में टंगे पिंजरे से तोते की आवाज ने उसका ध्यान आकर्षित किया । तोता एक ही शब्द बार-बार दुहरा रहा था- 'स्वतन्त्रता, स्वतन्त्रता, स्वतन्त्रता' । शायद मालिक ने उसे यह सिखाया था । स्वतन्त्रता शब्द सुनते ही राहगीर को अपना अतीत याद हो आया । वह भी तो अपने देश के लिए कटघरे में, कारागृह में एक ही आवाज लगाया करता था- 'स्वतन्त्रता, स्वतन्त्रता, स्वतन्त्रता' । मेरा राष्ट्र आजाद हुआ । तोता भी आजादी के लिए तिलमिला रहा है । पता नहीं, किस मुए ने इसे कैद कर रखा है । उसे तोते पर तरस आयी । उसने पिंजरे का द्वार खोल दिया । पर यह देखकर उसे आश्चर्य हुआ कि तोता पिंजरे से बाहर निकलने की बजाय और भीतर सिकुड़कर बैठ गया और स्वतन्त्रता का आलाप गाये जा रहा है । राहगीर ने सोचा, शायद तोता उससे भयभीत है । उसने पिंजरे में हाथ डाला और बड़ी कठिनाई से तोते को बाहर निकालकर आसमान में उड़ा दिया । वह प्रसन्न था, उस बात से कि आज उसने किसी को स्वतन्त्रता दी । वह आराम से सोया, उसकी नींद तब खुली, जब उसने सवेरे तोते की आवाज सुनी- स्वतन्त्रता, स्वतन्त्रता.....। उसने पाया तोता पिंजरे में बैठा आराम से भीगे चने और मिर्ची खा रहा है और बीच-बीच में उषा-गीत गा रहा है- स्वतन्त्रता, स्वतन्त्रता.....|
हँस रहे हो । अरे, सबकी यही स्थिति है, अरदास स्वतन्त्रता की करते हो और कार्य परतन्त्रता के । अशान्ति से उकता भी गये हो और उसे छोड़ना भी नहीं चाहते । परमात्मा को पाना चाहते हो, पर उसके लिए न्यौछावर होने को तैयार नहीं हो ।
लोग मेरे पास आते हैं, कहते हैं परमात्मा को कैसे प्राप्त करें; मन
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