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चलें, मन-के-पार ही ध्यान है, उसमें दिल भर डूब जाना ही योग है ।।
मेरे पाँव हिमालय की तराई पर हैं, और दृष्टि पर्वताधिराज के अष्टपद से मंडित कैलाश पर । खिंचे-खिंचे आप मुझ तक आ गये हैं । कई परिचित हैं, कई अपिरिचित । क्या आप तैयार हैं अन्तर-झंकन के लिए ? आश्वस्त रहें, मैं सहयोग करूँगा, भीतर झांकें । चूंकि आप भीतर झांक सकते हैं, बीज स्वयं का अन्तःकरण झांक नहीं पाता, इसीलिए जीवन-दर्शन की अधिक उज्जवल सम्भावनाएँ आपसे ही जुड़ी हैं । स्वयं के प्रति स्वयं की चेतना को और संवेदनशील बनाएँ । धन्यवाद है उस बीज को, जो आत्म-स्थिति से बेखबर होते हुए भी स्वयं के आँगन में आकाश उतार लेता है । वह मनुष्य नासमझ है, जो सक्षम होते हुए भी खुद की सक्षमता से कोई सरोकार नही रखता ।
तुम जीते हो दुनिया में, दुनिया के लिए । दुनिया के लिए कहना भी ठीक न होगा; जीते हो पाँच-पच्चीस लोगों के साथ रागात्मक सम्बन्धों में, सौ-दो-सौ गज जमीन के ममत्व-पोषण में । अपने लिए कहाँ जीते हो ! अपने लिए तो निरन्तर मृत्यु की ओर बढ़ रहे हो । जीवन मरने के लिए नहीं, जीने के लिए है- निजत्व के फूल को बेबाक खोलने के लिए है । हम लगे हैं दूसरों को जानने में । पर क्या अब तक किसी को जान पाये ? पुत्र पिता तक को नहीं जान पाया । कौन आदमी भीतर से कैसा है, कोई नहीं कह सकता । दूसरों को जाना नहीं जा सकता, मगर खुद को जाना जा सकता है । चूंकि स्वयं को जानना सम्भव है, इसीलिए तो निवेदन कर रहा हूँ । काश, जी सकते आत्म-अस्तित्व के लिए, सारा संसार अस्तित्व की उज्ज्वलताओं से भरा होता । फिर स्वतन्त्रता के गीत किसी राष्ट्र के नहीं, वरन् खुद के गाये जाते, प्राणि मात्र के गाये जाते । जरूरत है बोध के रूपान्तरण की ।
___मनुष्य के पाँव हैं कारागृह में । स्थिति इतनी विचित्र है कि हमने कारागृह को बन्धन नहीं, बल्कि घर मान लिया है । गुरु का दायित्व है पिंजरा खोलना । मगर मुसीबत तो यह है कि यदि कोई पिंजरे को खोले भी, तो भी पंछी उड़ने के लिए तैयार नहीं है । वह सोचता है 'कारा' ही सही, पर है तो जाना-पहचाना, चिर-परिचित । आकाश की विराटता
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