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चलें, मन-के-पार चार दिन बाद साधु उधर आया तो सिपाही ने उसे रोका और कहने लगा- साधु महाराज, मुझे आपसे एक बात पूछनी है । साधु ने कहापूछो । सिपाही बोला- मैं तीन दिन से एक सपना देख रहा हूँ | साधु बोला- मैं भी एक सपना देख रहा हूँ और उसे पूरा करने ही इधर आ रहा हूँ । सिपाही बोला- पहले मेरा सपना सुनो । मुझे सपना आ रहा है कि यहाँ से चार किलोमीटर दूर एक झोपड़ी है, जहाँ एक फकीर सोया है । उसके पलंग के नीचे बहुत-सा धन गड़ा है । कहीं वो साधु तुम ही तो नहीं हो ? साधु इतना सुनते ही अपनी झोपड़ी की ओर दौड़ पड़ा । अरे, धन तो मेरे पास ही था और मैं उसकी तलाश में कहीं और भटक रहा था ।
यही हो रहा है । सिपाही साधु के पास धन खोज रहा है और साधु कहीं ओर धन की तलाश कर रहा है । यहाँ हर व्यक्ति एक-दूसरे के बीच धन को, परमात्मा को तलाश रहा है । अपने भीतर देखने का प्रयास कोई नहीं कर रहा है । भगवान तो कहते हैं कि अपने भीतर के धन को जानना ही धन देखने का प्रयास है और वही धनवान है । अपने धन को आपने बिसरा दिया तो समझो कंगाल हो गए । मेरे पास आओ । यहाँ बहुत-सा धन गड़ा है । सिर्फ अपने आपको पहचानो कि तुम्हारे पास कितना धन बिखरा पड़ा है ।
___ आत्मधन के मुकाबले दुनिया का और कोई भी धन नहीं है । जरा उस वक्त को याद करो, जिस समय बिना मुहूर्त के तुम्हारी डोली उठा ली जाएगी। आत्म-धन विलीन हो जाएगा और दुनिया का धन यहीं-का-यहीं धरा रह जाएगा | तुम स्वयं माटी के हो, बर्तन तूने सारे सोने के सजाए हैं । तू छोटा-सा है, लेकिन तेरे अरमान तो आसमान जैसे हैं, पर एक बात तय है कि जिस दिन माटी माटी में समाएगी, उस दिन न सोना काम आएगा और न चाँदी काम आएगी। दुनिया का धन खो भी जाये, पर अपना धन बच जाये तो जान बची लाखों पाये । मूल प्रति अपने हाथ में हो और उसकी फोटो कॉपी खो भी जाए तो मौलिकता को कौन-सी आँच आती है । स्वयं की मौलिकता की ओर आँख उठाना ही सम्बोधि है ।
ध्यान स्वयं की मौलिकता में वापसी है । ध्यान है स्वयं-में-प्रत्यावर्तन
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