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ऊर्जा का समीकरण
७३ को हर ले । इसलिए हरि के पास जाओ तो वहाँ हरि-हरि बोलने से कुछ नहीं होगा । कुछ होने से ही जप होता है और हरि मिलता है । व्यक्ति जहाँ कुछ होता है, बनता है, वहीं हरि का बोध पैदा होता है ।
__ मनुष्य जो हरि-हरि बोल रहा है, वह बाहर ही ढूंढ़ना है । जब हम कुछ होते हैं तो हरि भीतर से बोलता है । उस समय जो आत्म-साक्षात्कार होता है, वही निःशब्द-की-यात्रा है । वहीं हरि का बोध होता है । वहाँ परा की ध्वनि गूंजती है । वहाँ हरि के दर्शन होते हैं । परमात्मा का साक्षात्कार होता है ।
जो व्यक्ति सिर्फ बाहर ढूंढ़ने का प्रयास करते हैं, उन्हें चाहिए कि बाहर जाओ मगर पहले अपने भीतर तो टटोल लो । अपने भीतर तो ढूंढ़ लो, जहाँ तुम स्वयं बैठे हो । क्योंकि वह कभी खोया ही नहीं, जिसे तुम ढूंढ़ रहे हो । वह तो पाया हुआ है । कमाने की जरूरत नहीं है, वह तो तुम्हारे ही पास है । जेब में हाथ डालो और निकाल लो । आपका धन तो आपकी जेब में ही है । हाथ डालो तो आपका और न डालो तो आपका होते हुए भी आप फकीर ही रहे । आप ढूंढ़ते हैं मेरे पास और मैं ढूंढ़ता हूँ आपके पास । आदमी यही कर रहा है जो चीज उसके पास है, उसकी खोज वह कहीं ओर कर रहा है और इसी का नाम मृगतृष्णा है।
अधिक पुरानी बात नहीं है । एक साधु अपनी झोपड़ी में सोया था । उसे सपना आया कि यहाँ से ठीक चार किलोमीटर दूर एक नदी है । उसके किनारे एक पेड़ है । उस पेड़ के नीचे धन गड़ा है । धन देखते ही साधु की आँख खुल गई । सोचा सपना है । अगले दिन, तीसरे दिन भी जब वही सपना आया तो अब साधु से नहीं रहा गया । उसने सोचा जरूर कुछ-न-कुछ तो है, नहीं तो रोज एक ही सपना आने का क्या तुक | साधु रवाना हुआ । ठीक चार किलोमीटर चलने पर नदी नजर आई | उसके पास पेड़ भी देखा । पेड़ के नीचे एक सिपाही बैठा है । अब साधु परेशान कि पेड़ के नीचे खुदाई कर धन कैसे निकाले । सिपाही के जाने का इन्तजार कर साधु वापस अपनी झोपड़ी की ओर लौट गया । साधु दूसरे दिन भी आया और तीसरे दिन भी, मगर सिपाही को वहाँ से हिलता न देख लौट गया ।
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