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________________ चलें, मन-के-पार की तरफ जाना है । गंगासागर की ओर जाना विराटता की ओर जाना है । गंगासागर की ओर जाना, अपने आपको फैलाना है, अपना विस्तार करना है । इसके विपरीत गंगोत्री की तरफ जाना, उसी स्थान पर जाना है, जहाँ से गंगा पैदा हुई है । मौलिकता तो गंगोत्री में ही है, जहाँ से गंगा पैदा हुई है और गंगासागर की ओर बढ़ती जा रही है । मूल तो गंगोत्री ही है, शेष सब मूल को ही तूल देना है । वहाँ से कितनी धाराएं निकलती हैं ! एक मूल कॉपी की जेरोक्स कॉपियां हैं । पॉजिटिव तो अनेक हैं, उनका निगेटिव एक ही है । जिन्दगी के दो रास्ते हैं, व्यक्ति या तो अपने को बाहर की तरफ फैला ले, या फिर भीतर की तरफ लौटा ले । आदमी के सामने ये दो ही यात्राएँ होती हैं । बाहर की, फैलाव की यात्रा भी कोई खतरनाक यात्रा नहीं है । व्यक्ति के लिए बाहर की यात्रा भी बेहतरीन हो सकती है और भीतर की यात्रा भी घाटेमंद हो सकती है । यदि कोई व्यक्ति अपने आपको बाहर फैलाना चाहता है तो फैलाए । सिर्फ परिवार और मोहल्ले तक ही फैलाकर उसे रुकना नहीं चाहिए । जो व्यक्ति अपने आपको परिवार और मोहल्ले तक ही फैलाता है, वह अपने हाथों से ही अपने पांवों में राग की बेड़ियां डाल रहा है और जो व्यक्ति अपने आपको अनन्त तक फैलाता चला जाता है, वह परमात्मा का अहोभाव जान जाता है । ऐसा आदमी अपने आपको अनन्त की लहरों में छोड़ रहा है और अपना विस्तार भी कर रहा है । वहाँ न राग है और न आसक्ति । वहाँ केवल आत्मा की तरंगों का फैलाव और विस्तार है । जहाँ व्यक्ति मन की लहरों में जकड़ता है, वहीं व्यक्ति डूबता है । जहाँ व्यक्ति आत्मा की लहरों में अपनी नौका छोड़ता है, वहीं व्यक्ति अपने आपको फैलाता है । यदि कोई व्यक्ति अपनी बाहर की यात्रा में स्वयं को अनन्त तक फैलाता है तो घाटा नहीं है । आप तो फैलाते चले जाओ, अनन्त तक, ब्रह्माण्ड के अन्तिम छोर तक और जब भीतर लौटने की यात्रा शुरू करो तो वे दो-चार कदम भी बेहतरीन ही होंगे । बाहर का फैलाव हो अनन्त तक और भीतर सम्पादन हो शून्य तक । अकेले रहो तो ध्यान और संगी-साथी हों तो प्यार । एक साथ दोनों को साधो, तो संसार में ही संन्यास घटित हो जायेगा । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003892
Book TitleChale Man ke Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1993
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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