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द्रष्टा-भाव: ध्यान की आत्मा
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के ऊहापोह भरे पहलू ठंडे हो जाने पर एक ऐसी क्षमता मुखर / प्रखर होती है, जिसे पश्यन्ति कहा गया है । यह अध्यात्म - क्रान्ति की बुनियाद है । पश्यन्ति में जो देखा जाता है, वह बाहरी आँखों से नहीं, भीतरी दृष्टि से, उपयोग-इन्द्रिय से, अतीन्द्रिय से । अन्तर्जगत् का दर्शन अतीन्द्रिय होता है । इसीलिये ऋषि-मुनि कहते हैं- हमने देखा । महावीर कहते हैं मैंने देखा, मैंने जाना । उनके तो साधना -सूत्रों में भी सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान प्राथमिक हैं । बुद्ध के शब्दों में- पिटक - ज्ञान मैंने बोधि-क्षणों में देखा । मूसा को भी कमांडमेंट्स दिखाई पड़े ।
देखने और सुनने में सिर्फ तीन इंच का फर्क नहीं है, फर्क है बोध की प्रखरता का । दर्शन मौलिक ज्ञान का प्रकाश मार्ग है। श्रवण के बाद दर्शन की भूमिका है। श्रवण की कसौटी दर्शन ही है। 'कानों सुनी सो झूठी, आँखों देखी सो सच्ची' | सुनने से तो बस इशारा मिलता है । पहले सुनो- सुनने से पता चलेगा कि सच क्या है, झूठ क्या है । फिर उसको देखो । आँखों से देख लोगे, तो वह श्रुति नहीं, वह वेद हो जाएगा ।
वेदों को पहले श्रुति कहा जाता था । श्रुति यानि सुना हुआ । जिन पुरुषों और बुद्ध-पुरुषों ने कहा कि सुना हुआ सत्य हो सकता है, किन्तु पूर्ण सत्य तो देखा हुआ होता है । हम जो कह रहे हैं, उसे हमने देखा, सुना नहीं । सुनी हुई चीज को अभिव्यक्ति देते समय घटोतरी - बढ़ोतरी तो होती ही है । शब्दशः कहने में बुद्धि लड़खड़ाएगी । ज्ञान शब्द के पार भी है । फिर कथ्य की बोधगम्यता के लिए हम अपनी बुद्धि को भी सहकारी संस्था बना सकते हैं ।
इसलिए परम्परा में मोड़ आया । श्रुति शब्द की जगह वेद शब्द प्रसारित हुआ । वेद का मतलब है जाना, अनुभव किया । वेद अनुभव किये हुए को कहना है । महावीर के समर्थकों / शिष्यों ने भी शास्त्र लिखे, किन्तु उन्होंने अपने हर शास्त्र के प्रारम्भ में एक बात बड़ी ईमानदारी से कही- 'सुयं मे'- मैंने सुना है । वे यह नहीं कहते कि हमने जाना है, देखा है । वे तो बेबाक कहते हैंहमने सुना है । यह नामुमकिन नहीं है कि हमारे सुनने में, समझने में, सुने हुए को कहने-लिखने में कोई त्रुटि न हो। इसलिए यदि हमें किसी धर्मशास्त्र में कोई बात तर्कसंगत न लगे, अवैज्ञानिक लगे, तो इसका दोष किसी अमृत-पुरुष के मत्थे मत मदना | सुनी हुई बातों को पढ़ लो, फिर उसे जाँचो- परखो,
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