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चलें, मन के-पार जैसे रात को सोते हो । रात को सोते समय शरीर सोता है, पर मन सपने के जाल बुनता है । यहाँ तुम्हें मन को सुलाना है होशपूर्वक रहकर । आधे घंटे की यह शान्ति भर देगी तुम्हें फूल-सी खिलती ताजगी से । तुम स्वयं को तनाव रहित, तरोताजा और स्वस्थ-मन पाओगे ।
यदि मन के कारण अधिक परेशान हो, तो एक और प्रक्रिया से गुजर सकते हो और वह है प्रतिक्रिया-मुक्ति । अच्छे-बुरे जो भी कार्य हों, होने दें; स्वयं को उससे न जोड़ें । क्रिया चालू रहे, पर प्रतिक्रिया नहीं । मानसिक तनाव, आक्रोश और असंतुलन का मुख्य कारण प्रतिक्रिया है । यह संकल्प करना ही काफी है कि मैं किसी भी क्रिया पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त न करूँगा । धीरे-धीरे आप पाएँगे कि भाग्य के उल्टे-सीधे खेल होने के बावजूद खुद शान्त हो, खुश हो । ध्यान की यह अनिवार्य भूमिका भी है । ___आम तौर पर हमारी जिन्दगी बोलने और सोचने में ही घिसती/सरकती है । आदमी जितना बोलता है, उससे अधिक वह सोचता है । जितना सोचता है उसका दसवाँ हिस्सा भी वह बोल नहीं पाता । अभिव्यक्ति अनुचिन्तन से बढ़कर नहीं हो सकती । पर हाँ, जिनका मन मितभाषी हो जाता है, वे उतना ही बोलते हैं, जितना वे सोचते हैं । अन्तरदृष्टि का द्वारोद्घाटन होने के बाद भी मन का उपयोग और वाणी का व्यवहार तो होता है, पर उतना ही जितना आवश्यक है । तीर्थंकर, बुद्ध या ब्रह्मर्षि लोग नहीं बोलते हों, ऐसी बात नहीं है । मन और होठ, कण्ठ, तालू का उपयोग तो वे भी करते हैं, पर तुम्हारी तरह नहीं, जो बोलते तो हैं पाँच मिनट और सोचते रहते हैं दिन भर । तुम किसी से मिले, बात की; वह चला गया, पर्दा गिर जाना चाहिये, परन्तु तुम उसके चले जाने के बावजूद उसके बारे में सोचते रहते हो । सोच की यह प्रक्रिया ही तो मनुष्य के लिए तनाव की आधारशिला है ।
आत्मजागृत पुरुष तो दर्पण की तरह होते हैं । कोई आया दर्पण में, उसका प्रतिबिम्ब बना । वह चला गया, बात खत्म हुई । दर्पण चित्रांकन नहीं करता । वह केमरा नहीं है । खुद को उसमें देखना चाहोगे, तो वह दिखायेगा । तुम्हारी मुखाकृति हटी कि वह साफ-सुथरा, स्वच्छ, निर्मल-प्रतिबिम्ब मुक्त ।
जीवन-विज्ञान का तीसरा तल है पश्यन्ति- दर्शन का, देखने का । मन
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