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द्रष्टा-भाव : ध्यान की आत्मा वह मरा, ठीक उसी वक्त एक वेश्या भी मरी । एक के लिए पूरा शहर उमड़ा, शोभायात्रा निकाली गई । दूसरे के लिए म्युनिसिपल बोर्ड की गाड़ी आयी और मरी हुई कुतिया की तरह उठाकर ले गई ।
धर्मराज के दरबार में दोनों के लिए सुनवाई हुई । धर्मराज ने कहा मठाधीश को झाडू निकालने का काम सौंपा जाए और और वेश्या को देवलोक का आधिपत्य । वेश्या ने कहा- जी, कहने में गलती हुई । मैं
और आधिपत्य ! झाडू निकालने की भी गति मिल जाए, तो मैं इसे आपकी कृपा मानूंगी । मेरे भाग्य कहाँ ! मैंने तो जिन्दगी भर पाप-ही-पाप किये
मठाधीश ने कहा- धर्मराज ! तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है । मैं और झाडूगिरी ! वेश्या और आधिपत्य ! तुमसे तो धरती के लोग भी भले हैं, जो सम्मानपूर्वक मेरी अर्थी निकाल रहे हैं । कुछ तो न्याय का सम्मान करते !
- धर्मराज ने कहा- मठाधीश ! धर्मक्षेत्र में अन्याय नहीं होता । तुम मठाधीश होते हुए भी वेश्यागामी थे और वेश्या शरीर बेचकर भी मठाधीश/संन्यस्त थी ।
___धर्मराज की बात से दोनों चौंके- मठाधीश भी, वेश्या भी । धर्मराज ने पहेली सुलझाते हुए कहा- मठाधीश ! तुम पवित्र वेश में रहते हुए भी रात-दिन वेश्या के बारे में सोचते रहे और रास्ता ढूँढते रहे कि कैसे उसके साथ सहवास हो । वहीं वेश्या स्वयं को धिक्कारती रही और भगवान से प्रार्थना करती रही कि प्रभो ! यह दुष्कृत्य तुम और किसी से मत करवाना । काश मैं भी संन्यस्त हो पाती, मीरा की तरह तुममें समा जाती ।
धर्मराज का यह सत्य-दर्शन हमारे लिए भी है । कहीं ऐसा न हो कि हमें मठाधीश का स्थान मिले । जीवन के वास्तविक फूल अन्तर-धरातल पर खिलते हैं । जो अन्तर्-जीवन को जानने के लिए, उसके निर्माण और संस्कार के लिए उत्सुक है, वही वास्तव में आस्तिक है । अस्तित्व का स्वीकार ही आस्तिकता की पहचान है ।
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