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द्रष्टा भाव : ध्यान की आत्मा
जीवन की उपलब्धि खुद जीवन को देखने में है । देखना दर्शन है । श्रद्धा और आस्तिकता का बीजांकुरण दर्शन से ही सम्भव है। अदर्शी मनुष्य जीवन-भर धर्म के द्वार पर जाकर भी नास्तिक रह सकता है ।
आस्तिकता और नास्तिकता के कानून बड़े पेचिदे हैं । बाहर से आस्तिक नजर आने वाला महानुभाव भीतर से घोर नास्तिक हो सकता है । यह भी मुमकिन है कि बाहर का नास्तिक भीतर आस्तिक हो । मैंने आस्तिकों में भी दमित नास्तिकता की चिंगारियाँ देखी हैं और कथित नास्तिकों में बुलन्द आस्तिकता का परिदर्शन किया है ।
यदि वेद को मानने वाले को ही आस्तिक समझा जाये, या मन्दिर - मठों में धोक लगाने वाले को ही आस्तिक कहा जाये, तब तो संसार में पाँच प्रतिशत लोग ही ऐसे हैं, जो आस्तिकता की इस जिम्मेदारी को निभाते हों । ऐसे पाँच प्रतिशत लोगों में निन्यानवें प्रतिशत लोग ऐसे हैं, जो पन्द्रह मिनट धर्मस्थानों में लगाते हैं, शेष समय दुनियादारी / दुकानदारी में |
नास्तिक और आस्तिक की अब तक जो परिभाषाएँ होती रही हैं, उससे तो धरती में आस्तिक 'पेड़ में एक टहनी के बराबर' हैं । पर मैंने जहाँ तक पाया है, उसके मुताबिक कथित नास्तिकों में आस्तिकता की बहुत बड़ी सम्भावना है । आस्तिकता किसी भी कोने से उभर सकती है । मछुआरे मछली पकड़ने के लिए रवाना होने से पूर्व आकाश की ओर देखकर तीन बार भगवान् को याद करते हैं । फांसी लगाने वाले चाण्डाल कहते हैं, मरने से पहले खुदा को याद कर लो । वेश्या के रूप में गंदी मछली कहलाये जाने के बावजूद उसमें आस्तिकता की कोई किरण छिपी मिल सकती है ।
कहते हैं, एक बार किसी मठाधीश की मृत्यु हो गयी । जिस समय
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