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यह है विशुद्धि का राजमार्ग
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पर जीवन का संसार-भ्रमण है । मन के रहते तृष्णा भी जन्मेगी और शरीर के रहते वासना भी; किन्तु शरीर को मन की जी- हजूरी में लगाना और शरीर को मात्र शरीर के साथ खिलवाड़ में उलझाना मनुष्य की सबसे ओछी बुद्धि की पहचान है । आखिर शरीर और मन के आगे भी पड़ाव की सम्भावनाएँ हैं । गोरी चमड़ी के लिए मन की बाँहें फैलाना और चोरी / दमड़ी के पीछे ईमान को नजर अन्दाज करना जीवन की आन्तरिक असभ्यता और फूहड़पन है ।
हमें तो अन्तरजगत् को फूल की तरह खिलाना और महकाना है । मनुष्य का दायित्व तो दूसरों के जीवन में भी सुवास - संचार का है, पर जहाँ खुद के पाँव दलदल में जमे हों, तो विशुद्धि का मार्ग आँखों से ओझल कहलाएगा ही । सीखें हम फूलों से महकना और गुलशन को महकाना ।
सौरभ को जीवन-द्वार पर आमन्त्रित करने के लिए जरूरी है चित्त और चित्त-वृत्तियों को पावनता की किसी गंगा में नहला-धुला लिया जाए । हमारे जीवन की हर नीति दूसरों के लिए भी यथार्थ आदर्श बने, तो ही हमारे अस्तित्व की सार्थकता है ।
चित्त पर मलिनता आती है संकल्प की कमजोरियों के पिछले दरवाजे से । बर्तन पर धूल जमनी स्वभाविक है । अगर खुश मिजाज के साथ उसे साफ किया जाए, तो विशुद्धिकरण भी आनन्ददायी होगा । मुँह लटकाए दिल से चित्त को कभी ईश्वर का सामीप्य नहीं दिलाया जा सकता है । ईश्वर बिम्ब है तो ऐश्वर्य उसकी आभा । क्या राख जमे आइने में किसी का चेहरा झलकेगा ? बिम्ब-दर्शन के लिए दर्पण-दर्शन की उज्ज्वलता अनिवार्य है ।
ईश्वर उत्सव है, और उत्सव उत्सुकता से मनाया जाना चाहिए । ईश्वर उत्सव रूप है, रस रूप है । रसमयता ही एकाग्रता की आधारशिला है ।
एक बात तय है कि चित्त कर्त्ता नहीं है; चित्त करण है । चित्त ने न तो अपने पर अशुद्धि की मैली कथरी ओढ़ी है और न ही वह शुद्धि की पेशकश करेगा । आखिर व्यक्ति ने ही उसके पात्र में जहर घोला है।
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