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अन्तिम चरण - पूर्ण मुक्ति है, जो जन्म से पहले भी जीवित था और मृत्यु के बाद भी संजीवित रहेगा ।
जीवन में विभिन्न भूमिकाओं को देखते हुए, योग भी कई सांचों में ढला हुआ नजर आता है । बहिर्योग, अन्तर्योग और परमयोग, योग के ही प्रतिमान हैं । बहिर्योग बाहर के जगत से जुड़ना है । अन्तर्योग भीतर की
ओर बैठक लगाना है । परमयोग भीतर और बाहर दोनों को ही भूल जाना है, अपने आपको परमात्मा में ढूंढना/निहारना है । यह योग की पराकाष्ठा है । मुझे यह स्थिति बहुत प्यारी है । परन्तु यहाँ से आगे भी एक और स्थिति की सम्भावना है, मैं उसे योग न कहकर 'अयोग' कहूँगा ।
अयोग में सारे योग पीछे धकिया जाते हैं । संसार और शरीर का ही नहीं, परमात्मा के प्यार का भी यहाँ वियोग हो जाता है । परमयोग परमात्मा से प्यार है, परन्तु अयोग स्वयं परमात्मा हो जाना है । यह विशुद्ध कैवल्य-दशा है ।
कैवल्य का अर्थ है केवलता । यह वह परास्थिति है, जहाँ 'मैं' तो छूट ही जाता है, हूँ' भी पीछे रह जाता है । यहाँ रहती है, अस्तित्व-की-विशुद्धता, खुद-की-खालिसता ।।
कैवल्य-स्थिति के लिए एक और प्रचलित शब्द है सर्वज्ञता । सर्वज्ञता का अर्थ होता है स्वयं की सर्वसत्ता का ज्ञान । यद्यपि सर्वज्ञता और कैवल्य दोनों एक ही घटना के एक नाम कहे जाते हैं, पर मुझे कैवल्य सर्वज्ञता से भी ऊंची चीज लगती है । ज्ञान चाहे स्वयं का ही क्यों न हो, ज्ञान की अनुभूति के लिए मन का संवेदनशील होना अनिवार्य है । इसलिए सर्वज्ञता अन्तर-योग और परम योग हो सकता है, परन्तु अयोग का विशुद्ध रूप तो कैवल्य की ही उपज है । समाधि तो सर्वज्ञता भी है और कैवल्य भी । सर्वज्ञता की स्थिति सबीज समाधि है और कैवल्य निर्बीज समाधि है ।
सबीज समाधि में स्मृति से वियोग नहीं होता, स्मृति का शुद्धिकरण होता है । मन की चंचलता समाप्त हो जाती है, परन्तु जरूरत पड़ने पर मन का भी उपयोग किया जाता है । विचार मौन हो जाते हैं, किन्तु आवश्यकता पड़ने पर होठों से अभिव्यक्ति सम्भावित रहती है । सर्वज्ञता
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