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चलें, मन-के-पार वह बाहर भी वैसी ही करेगा जैसी भीतर । इसलिए परमात्मा परम विकास है- अन्तःबाह्य का ।
अन्तर्जगत की मौलिक अस्मिता, विचार और मन से भी सवा कदम आगे है । मन शरीर है । मात्र देह ही शरीर नहीं है। हमारे विचार और हमारा मन भी शरीर के ही दायरे में आते हैं। देह स्थूल शरीर है । विचार देह से सूक्ष्म है । मन शरीर का सबसे सूक्ष्मतम रूप है । शरीर तो परमाणुओं का, पंचभूतों का मिश्रित संगठित, सम्पादित रूप है । मन शरीर की पारमाणविक शक्ति है । जैसे-जैसे शरीर का विकास होता है, उम्र का तकाजा मन पर भी लागू होता है ।
. मन, वचन और शरीर ही बहिर्जगत के योग के आधार हैं । यदि इन्हें सम्यक दिशा दे दी जाये, तो ये अन्तर्योग में भी सहायक की भूमिका अदा कर सकते हैं । अध्यात्म की भाषा में अन्तर्योग के लिए देहातीत शब्द का उल्लेख किया जाता है । देहातीत का अर्थ देह की स्थूलता से ऊपर उठना नहीं है । साधक को उपरत होना होता है, देह से भी और मन से भी । आखिर मन भी देह है और विचार भी । देहातीत कैवल्य-दशा है । वही व्यक्ति देहातीत है, जो है मनातीत, वचनातीत, कायातीत ।
देहातीत अनिवार्यतः कालातीत होता है । देहातीत का सम्बन्ध होता है आत्मा से और काल का सम्बन्ध होता है देह से । काल आत्मा को कुण्ठित नहीं कर सकता । काल का धर्म परिवर्तन है और परिवर्तन के सारे मापदण्ड देह से जुड़े होते हैं । जो देह से ऊपर उठ गया, वह काल से भी ऊपर हो गया । इसलिए देहातीत-पुरुष युग-पुरुष नहीं होता । वह होता है- अमर पुरुष, मृत्युंजय, अमृत-पुरुष ।
यद्यपि बहिर्जगत से होने वाला संयोग योग की ही पृष्ठभूमि है, परन्तु वह योग कालातीत और अपरिवर्तनशील नहीं है । जिसकी देह गई, उसका जग गया, देह जग से मिली और जग में समा गयी । देह में प्रवास करने वाला 'मैं' तो देह के साथ नहीं मरा । मैं तो कालमुक्त है और देह कालग्रस्त । शरीर और जगत् के साथ होने वाला योग आरोपित है । ध्रुवता के गीत ऐसे योग में झंकृत नहीं होते । साथ तो आखिर वह रहता
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