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जाती है प्रतिबिम्बों में बिम्ब को देखने की भावधारा ।
मन विचारों की तरंगों से शरीर को कर्म करने के लिए प्रेरित करे, उससे पहले उसकी दिशा मोड़ देनी चाहिये । प्रत्याहार ही प्राणायाम से फैलती प्राण-शक्ति को वापस लौटाता है । प्राणायाम से प्राणों का विस्तार होता है। और प्रत्याहार से मूल स्रोत की ओर वापसी ।
करें, चैतन्य-दर्शन
बाहर की ओर श्वांस छोड़ना प्राणायाम है, भीतर की ओर श्वांस लेना प्रत्याहार है । प्राणायाम और प्रत्याहार की इस लयबद्धता का नाम ही जीवन है । यदि यही प्रक्रिया चेतना से जुड़ जाये, तो अनन्त उज्ज्वल सम्भावनाएँ साकार हो सकती हैं । व्यक्ति स्वयं को बाहर ले जाए अनन्त तक और भीतर ले जाए शून्य तक । महाजीवन की भगवत् सम्पदा भीतर की शून्यता और बाहर की पूर्णता में है । पहल के लिए जरूरत है प्राण-शक्तियों की, भीतर में बैठक बनाने की । अन्तरशक्तियों को स्थितप्रज्ञ बनाने का नाम ही कुम्भक है ।
चैतन्य-शिखर की यह यात्रा हमारे व्यक्तित्व के क्रिया- तन्त्रों का सम्मान है । शरीर, मन, विचार, चित्त या मस्तिष्क सबकी धमनियों में आखिर मौलिकता किसकी है, मूलतः अन्दर कौन है, किसका प्रवाह है, इसके प्रति जिज्ञासा होनी चाहिये । जिसने यह जानने की चेष्टा की कि मेरा जीवन-स्रोत क्या है, मैं कौन हूँ, वह सम्बोधि- मार्ग का पात्र है । जिज्ञासा सम्बोधि की सहेली है । समाधि तो वहाँ है, जिसकी स्वयं को जानने की चेष्टाएँ सफलता का प्रमाण-पत्र ले चुकी हैं ।
समाधि वह तट है, जिसे पाने के लिए कई तूफानों से लड़ना पड़ सकता है । जो तूफान से जूझने के लिए हर सम्भव प्रस्तुत है, उसके लिए हर लहर सागर का किनारा है ।
समाधि का सागर जीवन से जुदा नहीं है । जीवन और समाधि के बीच कुछ घड़ियों / अरसों का विरह हो सकता है, किन्तु शाश्वत विरह के पदचाप सुनाई नहीं दे सकते । यदि मनुष्य कृतसंकल्प हो और अपने संकल्पों के लिए सर्वतोभावेन समर्पित हो, तो समाधि का नौका-विहार भंवर के तूफानी गड्ढों में भी बेहिचक होता है ।
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