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चलें, मन-के-पार वरन जीवन की ओर लौटाना है । जीवन के सामने जीवन से बढ़कर और कोई उपलब्धि नहीं है । सम्भावनाएं मरने से नहीं उभरतीं, किसी भी सम्भावना को जन्म देने के लिए जीवन अनिवार्य है | जो चीज जीवन से सम्भव है, वह मौत से कहाँ !
यदि मैंने प्राणायाम करने के लिए कहा तो प्राणायाम को मात्र शारीरिक परिश्रम मत समझ लेना, प्राणायाम ध्यान की एक भूमिका है । ध्यान केवल मनोयोग से ही नहीं किया जाता, अपितु काय-योग से भी किया जाता है । काय-योग का मतलब शरीर के प्रति आसक्ति नहीं है, अपितु ध्यान के लिए शरीर को प्रस्तुत करना है । हमें शरीर को सूकाना नहीं है; शरीर को तो सदैव तैयार रखना है, आत्म-साधना के लिए । बड़ा अच्छा सूत्र है- 'शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्' । धर्म में प्रवेश करने का द्वार ही शरीर है । और प्राणायाम ध्यान के लिए शरीर को पूरी तरह से निष्ठावान और एक लय बनाता है ।
प्राणायाम का मुख्य सम्बन्ध सांस से है। सांस यानि जीवन की शुरूआत, जीवन की आधारशिला । कोई बच्चा गूंगा पैदा हो सकता है, पंगु भी जन्म सकता है, जन्मान्ध भी हो सकता है; किन्तु कोई भी बिना सांस के जिन्दगी नहीं पा सकता । सांस की क्रिया वास्तव में जीवन-की-प्रक्रिया है । इसलिए एक अच्छे जीवन के लिए जैसे शरीर-संयम जरूरी है वैसे ही श्वांस-संयम भी अनिवार्य है । प्राणायाम श्वांस-संयम की विधा है । श्वांस लेने, रोकने और छोड़ने की क्रिया ही प्राणायाम है । श्वांस का लेना पूरक है, भीतर रखना कुम्भक और छोड़ना रेचक है ।
प्राणायाम की ये तीनों विधाएं हर आदमी से जुड़ी हैं । न केवल आदमी से, बल्कि अस्तित्व मात्र से । जिसका सांस जितनी मन्द गति से चलता है, उसका आयुष्य उतना ही अधिक होता है । आपने कुत्ते को सांस लेते हुए देखा है । कितनी तेज गति से सांस लेता है । वह एक मिनट में करीब तीस सांस लेता है। खरगोश उससे भी ज्यादा लेता है। खरगोश प्रति मिनट अड़तीस सांसें लेता है । जिस जन्तु की श्वांस संख्या जितनी ज्यादा, उसकी उम्र में उतनी कटौती होती है । खरगोश अनुमानतः आठ साल जीता है, कुत्ता तेरह-चौदह साल । डार्विन कहता है आदमी बंदर से पैदा हुआ, पर
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