SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्वांस-संयम से ब्रह्म-1 य-विहार २०३ आधार पर जीवन के मापदण्डों को खड़ा मत करिएगा, क्योंकि जीवन के मापदण्ड जीवन के आधार पर बनते हैं, उन्हें जन्म से मत तोलिएगा । जन्म से हर आदमी शूद्र होता है । मैं तो यह कहूँगा कि जन्म से ही आदमी शूद्र नहीं होता, क्योंकि शूद्र वह है जो शरीर-भाव से जीता है । आप रोजाना नहाते हैं, चेहरे को साफ करते हैं दाढ़ी बनाते हैं, आइने में देखते हैं । कितनी अजीब बात ! आईना (देह) ही आइने में देख रहा है । नहा चुके हो, मगर काला दाग अब भी लगा है । जिन्दगी भर नहाते रहोगे तब भी यह काला दाग नहीं छूटेगा । आखी उमर लगाय लीधी लक्स रेक्सोना साबू | फेर भी काळो रो काळो रेयग्यो जगजीवन राम बाबू । बाहर का कालापन तो फिर भी उतर जाएगा, अन्दर का क्या करोगे ? आप कोयले को सफेद करने चले हैं, भला यह भी सम्भव है ? अन्धकार दूर करना है तो दिया जलाओ, रोशनी हो जाएगी। मगर देह के कालेपन को कैसे मिटाओगे ? देह के प्रति रहने वाला भाव ही शूद्रता का उदय कर बैठता है । देह के प्रति आसक्ति ही व्यक्ति का शूद्रत्व है । स्त्रियों को मासिक धर्म होता है । जानते हैं क्यों होता है ? क्योंकि स्त्रियों में देह के प्रति प्रगाढ़ आसक्ति होती है । यहीं से मासिक धर्म की शुरूआत होती है । जो स्त्री देह में रहते हुए भी देहातीत अवस्था में अपने आपको महसूस करती है, उसका मासिक धर्म समाप्त हो जाता है । देह के प्रति रागात्मकता ही सारे दुःखों की जड़ है । I देह के प्रति रागात्मकता के कारण मासिक धर्म होता है और मन के प्रति रागात्मकता होने के कारण पागलपन । आपने पागल देखे होंगे । आपने पाया होगा कि सौ पागल में से निन्यानवें पुरुष होते हैं तो एक स्त्री पागल नजर आती है । यही कारण है । रागात्मकता उसे छोड़ती नहीं है । इससे ऊपर उठने की जरूरत है । जो व्यक्ति शूद्र से ऊपर उठता है, वह वैश्य बन जाता है । वैश्य - मन- का प्रतिनिधि है । वैश्य का काम यही रहता है यहाँ से माल मंगाना है, वहाँ भेजना है । वह गोदाम भरता चला जाता है । मन का भी यही स्वभाव है । हमेशा 'और' की चाह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003892
Book TitleChale Man ke Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1993
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy