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________________ २०२ चलें, मन के-पार है । जो व्यक्ति यह सोचता है कि 'मैं देह हूँ', वह शूद्र ही है । वह चाहे जैन हो, बौद्ध या कोई और, वह शूद्र ही है । 'मैं देह रूप हूँ, अपनी देह को धोता हूँ, संवारता हूँ', यह भाव जब तक बना रहेगा, आदमी शूद्र ही रहेगा । व्यक्ति देह के कारण, जड़ के कारण अपने भीतर ममत्व का आरोपण करता है, महावीर की भाषा में उस आरोपण का नाम ही मिथ्यात्व है और शंकर की भाषा में वही माया है । संसार की बात तो दूर, एक आम आदमी के जीवन की शुरूआत भी माया और मिथ्यात्व से नहीं हो सकती । अविद्या और अज्ञान से नहीं हो सकती । उसकी शुरूआत सम्यक्त्व और ज्ञान से होती है । पुरानी बात है । बादशाह इब्राहिम के महल के नीचे एक फकीर पहुँचा और वहाँ खड़े चौकीदार से कहा- मुझे इस ‘सराय' में ठहरना है । चौकीदार हँसा, 'तुम्हारा दिमाग तो ठिकाने पर है । यह महल है, सराय नहीं ।' फकीर अड़ गया कि वह तो इस सराय में ही ठहरेगा । बादशाह संयोग से उस समय ठीक चौकीदार और फकीर के ऊपर, एक झरोखे में बैठा दोनों का वार्तालाप सुन रहा था । उसने फकीर को अन्दर बुलाया और पूछा- 'तुम इस महल को किस आधार पर सराय कहते हो, जो यहाँ ठहरने की जिद कर रहे हो ।' फकीर ने इस प्रश्न का जवाब देने के बजाय बादशाह से उल्टा प्रश्न पूछ लिया- 'तुमसे पहले इस महल में कौन रहता था ?' बादशाह बोला 'मुझसे पहले यहाँ मेरे पिता रहते थे ।' फकीर ने फिर पूछा- 'तुम्हारे पिता से पहले यहाँ कौन रहता था ?' बादशाह बोला, 'मेरे पिता-के-पिता' । 'और उनसे पहले ?' फकीर ने फिर प्रश्न कर डाला । इस बार बादशाह बोला- 'उससे पहले उनके पिता-के-पिता रहते थे ।' अब फकीर बोला कि जब इतने लोग आए, यहाँ रहे और चले गए तो यह सराय ही तो हुई । आज तुम हो, कल तुम्हारा पुत्र यहाँ रहेगा । यह तो सराय ही है । बादशाह निरुतर हो गया, बोला'फकीर ! सचमुच तूने मुझे बता दिया कि यह सराय है । अब मुझे भी यहाँ नहीं रहना है । ' उसने जाना स्वयं को और यहीं से शुरूआत हो गई ब्राह्मणत्व की । ब्राह्मण जरा अपने आप को टटोलें कि वे कितने ब्राह्मण हैं ? जन्म के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003892
Book TitleChale Man ke Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1993
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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