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ध्यान : प्रकृति और प्रयोग
१६१ सूर्य-स्रान है । ऊर्जा शक्ति है और सूर्य के साथ मानवीय-शक्ति का बेहद संतुलन है । इसलिये मैं यह सलाह दूंगा कि सूरज की उगती रोशनी का भरपूर उपयोग किया जाये ।।
ध्यान भीड़ के कोलाहल से साधक को ऊपर उठाते हुए आत्म-एकत्व में प्रतिष्ठित करता है । इसलिए ध्यान आत्म-एकत्व की एकाग्रता है । वह अकेले भी किया जा सकता है और औरों के साथ भी । ध्यान के समय व्यक्ति के चारों तरफ एक विशेष प्रकार की तरेंगे उभरती हें । इसे आभामंडल भी कहा जा सकता है । यह ऊर्जा का स्पन्दन है, एक मंडल है, आवर्तन है । यदि हमारे साथ और कई लोग ध्यान में बैठे तो हमें इस पर आपत्ति नहीं करनी चाहिये, अपितु इस सामूहिक ध्यान-मंच का स्वागत करना चाहिये । यदि कई लोग एक साथ बैठकर ध्यान करते हैं तो आभामंडल की ये तरंगें और प्रगाढ़-प्रभावी हो सकती हैं । इससे बाहर का वातावरण भी हमारे लिये अनुकूल बन सकता है ।
शौच-स्नान से निवृत हो जायें, योगासन कर सकें तो ज्यादा अच्छा है । इससे एक नयी स्फूर्ति प्राप्त हो जाती है । सहज आसन में बैठ जायें, कमर को सीधी रखें ।
प्रथम चरण में देह-ऊर्जा को स्थित करना पड़ता है । इसके लिए हम ॐ का उद्घोष करें । इसे बार-बार दोहरायें और इस पर ध्यान करें । स्वयं को, स्वयं की ऊर्जा को ललाट पर, दोनों भौंहों के बीच या हृदय के मध्य भाग में केन्द्रित करने का प्रयास करें ।
दूसरे चरण में मन-की-क्रियाशीलता-से-मुक्त होना पड़ता है । इसके लिए हम सांस का सहारा ले सकते हैं । पहले गहरे, फिर तेज और बाद में सहज सांसों में प्रवेश करें । सांसों की पूर्वापर तीव्रता तब तक हो, जब तक हम थक न जायें । सांसें चलती रहेंगी, हम स्थित हो जायें द्रष्टा-स्वरूप में; भूल जायें अपने शरीर को, अपने मन को । यह विस्मरण ही हमें एक अलख शांति और शून्यता में प्रवेश करायेगा ।
___ तीसरे चरण में अस्तित्व-विहार होता है । एक ऐसी गहराई में प्रवेश होता है, जो अनुभव से भी दो कदम आगे है । हमें समरस होना होता
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