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ध्यान : प्रकृति और प्रयोग
१८६ है; अगर नहीं है तो हो सकता है । वैयक्तिक चेतना का परमरूप से खिलना ही परमात्मा है ।
हर व्यक्ति परमात्मा होने की ओर गतिशील है । व्यक्ति ही क्यों, पशु-प्राणी भी, यहाँ तक कि पेड़-पौधे और पहाड़ भी इस ओर बढ़ रहे हैं, देर-सबेर सभी परमात्मा होंगे । वह दिन सबसे ज्यादा सौभाग्यशाली और धरती को स्वर्ग बनाने वाला होगा, जब ब्रह्माण्ड की सकल समग्रता परमात्म-स्वरूप होगी । यह वह दिन होगा जब कोई व्यक्ति कीचड़ को भी छुएगा तो सोना बन जाएगा । वर्तमान में तो, क्षमा करने जैसा है । आज तो कोई सोने को भी छूता है तो वह कीचड़ बन जाता है । मनुष्य के प्रयास स्वर्णिमता की ओर होने चाहिये । वह अन्धकार में भले ही खड़ा हो, किन्तु प्रकाश के लिए उसे निरन्तर खोज और प्रयास करने चाहिये ।
ध्यान उस परम संभावना को निमंत्रण है । यह परमात्म-स्वरूप के लिए है, स्वयं की अस्मिता की सुरक्षा के लिए है । डूबें हम ध्यान में । ध्यान में आँसू बहें, बहने दें । यह आन्तरिक घुटन को बाहर निकाल देगा । प्रकाश उभरे, स्वागत करें | यह हमें नई ऊर्जा से भर देगा । निश्चयतः ध्यान के प्रयोग विश्व को एक नई ऊर्जा और नई दिशा दे सकता है ।
मनुष्य बुद्धिजीवी है । प्रयोग पर उसे सक्रिय रहना चाहिये । प्रयोग विज्ञान का सृजनधर्मी कदम है और ध्यान प्रयोग-पथ का प्रवर्तक है । ध्यान का सम्बन्ध अनुभव से है और अनुभव प्रयोग का पर्याय है । प्रयोग और अनुभव एक ही है । अनुभव आन्तरिक प्रयोगशाला का प्रयोग है और प्रयोग बाहरी प्रयोगशाला का अनुभव है । ध्यान अनुभूति के जगत् में आतंरिक प्रयोग है।
ध्यान प्रत्येक को करना चाहिये । ध्यान से मानसिक घुटन तो टलती ही है, नई स्फूर्ति और नई ऊर्जा से भी साक्षात्कार होता है । ऊर्जा मनुष्य की चैतन्य-शक्ति है । ध्यान उस ऊर्जा का सम्पादन है ।
___ ध्यान सिर्फ अन्तर्यात्रा ही नहीं है, वरन् अन्तर् की स्वच्छता एवं प्रदूषण-मुक्ति के लिए सार्थक अभियान भी है । अच्छाइयों के प्रति व्यक्ति की रुचि बढ़ती है । बुराइयाँ उससे बिना किसी प्रयास के छूट जाती हैं ।
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