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समाधि का प्रवेश-द्वार
१७३ कहते हैं सूरदास आँखों से अन्धे थे । उनकी भक्ति दुनिया के लिए प्रेरणा है । अन्धा आदमी अगर ध्यान और स्मृति के मार्गों से गुजर जाये, तो उसके हृदय की आँखें खुल सकती हैं ।
एक दिन सूर रास्ते पर चलते-चलते गड्ढे में गिर गये । थोड़ी ही देर में उन्होंने पाया कि कोई चरवाहा गड्ढे के पास आकर कह रहा है'बाबा ! मेरा हाथ पकड़कर बाहर आ जाओ' । चरवाहे ने सूर को बाहर निकाला । सूर ने उसका हाथ मजबूती से पकड़ लिया । चरवाहे ने कहामेरा हाथ छोड़ो । सूर ! मुझे अपनी गायें चरानी हैं । पर सूर ने कहामैं तुम्हारा हाथ नहीं छोडूंगा । तुम तो मेरे कान्हा-कन्हैया हो । मगर उसने कहा कि नहीं, मैं तो सिर्फ चरवाहा हूँ । तुम्हें गड्ढे में पड़ा देखा तो बाहर निकाल दिया और यह कहकर उसने सूर से अपना हाथ छुड़ाया और भाग गया । सूर ने कहा
हाथ छुड़ाकर जात हो, निर्बल जानके मोहे । हृदय से जब जाओ तो, सबल मैं जानूं तोहे ।
प्रार्थना का सम्बन्ध तो हृदय से है । हृदय की नौका के सहारे ही परमात्मा के उस पार को पाया जा सकता है ।
कबीर ने, आनन्दघन ने स्मृति को सुरति कहा है । सुरति का वास्तविक अर्थ स्मृति ही है । कबीर जैसा गृहस्थयोगी तो सुरति को ही परमात्म-प्राप्ति का अमोघ और अचूक उपाय बताते हैं । कबीर ने जाप का विरोध किया, माला-मणियों का भी विरोध किया, मंदिर-मूर्ति से भी वे कटे । पर वे अगर किसी पर पूरी तरह डटे रहे तो वह मात्र सुरति है, स्मृति है । उनकी दृष्टि में तो स्मृति अनहद से भी परा-स्थिति है
जाप मरै अजपा मरै, अनहद भी मरि जाय । सुरति समानि सबद में, ताहि काल नहीं खाय ।।
मृत्युंजय तो सिर्फ उसी समग्र की स्मृति ही है । स्मृति अगर सम्यक् हो, समग्र हो तो वही समाधि का सिंह-द्वार बन जाती है ।
साधना का एक और पगथिया है समाधि । समाधि को हम आम
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