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चलें, मन-के-पार कहीं ऐसा न हो कि शरीर की काम-आग हमें झुलसा दे, मन-की-तृष्णा हमें तोड़ दे ।
साधना के मार्ग में महावीर ने शरीर की स्वस्थता, मन की अडिगता और वातावरण की अनुकूलता को अनिवार्य माना है ।
साधना-पथ का तीसरा चरण है स्मृति । यह महत्त्वपूर्ण चरण है । यदि स्मृति है तो श्रद्धा अपने आप है । समाधि भी परछाई की तरह साथ-साथ आ जाएगी । लोग जो मालाएँ गिनते हैं, मन्त्रों का जाप करते हैं, वह वास्तव में स्मृति को ही परिपक्व और सशक्त बनाने के लिए है । स्मृति की सघनता के लिए ही मन्त्रों का विधान हुआ । संसार के सपनों को कम करने के लिए मंत्र-योग महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है । यदि हम हरे-हरे, राम-राम या अर्हम्-बुद्धम् का निर्बाध सतत् स्मरण करते चले जायें तो संसार से अनिवार्यतः अनासक्त हो जाएंगे । फिर भीतर में स्वप्न नहीं, वरन् जागरण होगा । तुलसी और सूर ने इसीलिए तो नाम-स्मरण पर जोर दिया । यदि श्वांसोश्वांस के साथ स्मृति जुड़ जाये तो रात में, नींद में भी जप/अजपा अनायास चालू रहेगा । यदि कोई दूसरा हमें देखेगा तो बड़ा स्तम्भित रह जाएगा । हम नींद में रहेंगे, लेकिन जप जागा हुआ होगा ।
स्मृति तो धुन है । परीक्षा के दिनों में बच्चों को कैसी धुन सवार होती है ! खाने को उसने खा भी लिया, सोने को उसने सो भी लिया, पर उसके ध्यान की समग्रता तो केवल पढ़ाई से ही जुड़ी रहती है । नतीजतन वह खाते वक्त भी पढ़ रहा है और सोते वक्त भी । ऐसी ही स्मृति जब परमात्मा की होगी तो तुम परमात्मा को पाने में बहुत जल्द सफलता पाओगे । परमात्मा की स्मृति से भरा हुआ हृदय ही तो प्रार्थना है । परमात्मा की पूजा से मतलब है, उसके अहोभाव से सराबोर । परमात्म-स्तुति जिस क्षण हो, वही तुम्हारे लिए ब्रह्म-मुहूर्त है और जहाँ हो, वहीं मन्दिर है । ये क्षण चूकने जैसे नहीं होते । ब्रह्म मुहूर्त चौबीस घण्टों में कभी भी साकार हो सकता है । मन्दिर कहीं भी मूर्त रूप ले सकता है । मूल्य हमारी स्मृति का है, प्रार्थना का है ।
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