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चलें, मन-के-पार १६२ दें । अपने ध्यान को श्वास पर केन्द्रित करें । श्वास की यात्रा में हम नाक के ऊपर दोनों भौंहों के बीच विशेष ध्यान दें ।
यह एक तत्त्व पर अपना ध्यान केन्द्रित करने की प्रक्रिया है । सम्भव है ध्यान में विचार भी उठें, ध्यान कहीं ओर चला जाये, किन्तु इससे घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है । उसे देख लें, सुन लें और फिर ध्यान को श्वास-की-यात्रा के साथ जोड़ दें । ____ विधि तो और भी कोई स्वीकारी जा सकती है । महत्त्व इस बात का है कि हम अपने लक्ष्य पर किस तत्त्व के साथ जुड़ते हैं । त्वरा से जीना ही ध्यान है । जीवन के नाटक का कब पटाक्षेप हो जाये, इसका कोई भरोसा नहीं है । पाँवों में मृत्यु का काँटा कभी भी गड़ सकता है । कुछ हो, इससे पहले सत्य को समझ लेना चाहिए । जीवन से बढ़ कर और सत्य क्या होगा ।
जीवन सत्य है; झूठ तो मृत्यु है । जीवन जीने वाला मृत्यु को भी जीता है । मृत्यु से डरना हमारी हार है । जीवन तो मृत्यु-के-पार भी है । समय पर शाश्वतता के हस्ताक्षर वही कर सकता है, जो जीवन और मृत्यु के आर-पार झांकता है । अन्तर-द्रष्टा जीवन-स्रष्टा है । जीवन बिखेरने/मिटाने के लिए नहीं है; जीने और केन्द्रित करने के लिए है ।
हमारे पास ढेरों सम्पदाएँ हैं । शरीर भी हमारी सम्पदा है । शरीर के हर अंग का मूल्य है । विचार भी हमारी सम्पदा है । जीवन के सारे मूल्य उसी से जुड़े हैं । सम्पदाएँ सुरक्षा चाहती हैं, स्वस्थता चाहती हैं, तरोताजगी चाहती हैं । जैसे कछुआ अपने अंगों को अपने में समेटे रखता है, वैसे ही तो आत्म-नियन्त्रण-का-शास्त्र है । जो आत्म-नियन्त्रित है, अनुशासित है, उसे कैसा खतरा और कैसा भय ! व्यक्ति ही स्वामी होता है अपनी सम्पदाओं का ।
तेरो तेरे पास है, अपने मांहीं टटोल । राई घटे न तिल बढ़े, हरि बोलौ हरि बोल ॥ तुम्हारी सम्पदा तुम्हारे पास है । खोजना भी क्या, सिर्फ टटोलना
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