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ध्यान : संकल्प और निष्ठा की पराकाष्ठा
१६१ अपने आपको जमाने से इतना ऊपर उठा लो कि जमाने का कोई भी दुर्व्यवहार हम पर असर न कर सके । बुरा बुराई कर रहा है, कहीं हम तो उसके साथ बुरे नहीं हो गये हैं ।
एक प्रसिद्ध दार्शनिक हुए हैं देकार्त । एक बार किसी ने उनसे दुर्व्यवहार किया, पर देकार्त ने उसे कुछ न कहा । इस पर एक मित्र कहने लगे, तुम्हें उससे बदला लेना चाहिए था । उसका सलूक बहुत बुरा था । देकार्त नरमी से बोले- जब कोई हमसे बुरा व्यवहार करे तो अपनी आत्मा को उस ऊंचाई पर ले जाना चाहिए, जहाँ कोई दुर्व्यवहार उसे छू न सके ।
ध्यान उस ऊँचाई को पाने का राजमार्ग है । आत्मा वह तत्त्व है, जिस पर हमें अपना ध्यान केन्द्रित करना है । ध्यान के लिए किसी आसन या आँखों पर पट्टी बाँधने की जरूरत नहीं होती । ध्यान के लिये चाहिए सिर्फ संकल्प । संकल्प जितना परिपूर्ण और उल्लास भरा होगा, ध्यान हमारा उतना ही सक्रिय होगा । आत्म-संकल्प और आत्म-निर्णय ही ध्यान का संविधान-सूत्र है ।
हमें अपनी ऊर्जा को एक बिन्दु पर केन्द्रित करना चाहिए । केन्द्र की यात्रा के लिए हमें परिधि का मोह तजना ही होगा । ऊर्जा जितनी केन्द्रित होगी, शक्ति उतनी ही सघन बनेगी । ऊर्जा का बिखराव तो चित्त की विक्षिप्तता है । इसलिए अपना ध्यान अपनी ही ऊर्जा पर केन्द्रित करो ।
महावीर और बुद्ध ने ध्यान की विधि बतायी है । 'अनुप्रेक्षा' महावीर की ध्यान-विधि का नाम है और 'विपश्यना' बुद्ध की ध्यान-विधि का । अनुप्रेक्षा
और विपश्यमा दोनों दो नाम होते हुए भी समानान्तर नहीं हैं । अनुप्रेक्षा का अर्थ है अन्दर देखना । अन्तर्दर्शन ही अनुप्रेक्षा है । विपश्यना भी इसी अर्थ की पर्याय है । ढाई हजार वर्षों के बाद भी इस ध्यान-विधि की महिमा और गरिमा में थोड़ा-सा भी ह्रास नहीं हुआ है । आज भी मनुष्य की अन्तरयात्रा में अनुप्रेक्षा और विपश्यना अर्थपूर्ण है, उपयोगी है ।
हम बैठ जायें । आँखें बन्द करें । शरीर और मन को तनाव न
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