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चलें, मन-के-पार हैं । इसके चलते तो भगवत् - पुरुष भी चक्कर खा जाते हैं और नकली स्वर्ण मृग के पीछे असली सीता को खो बैठते हैं । अक्ल तो तब आती है, जब तृष्णा दुलत्ती मारकर सात समुन्दर पार पहुँच जाती है ।
भेद-विज्ञान तृष्णा और मूर्च्छा का बोध है । आवाज सुनकर या पानी के छींटे खाकर जगना भली बात है, पर वे लोग 'सम्मूर्छिम' - प्रगाढ़ मूर्च्छित हैं, जो समुन्दर में गिरकर या आग के घर में होकर भी यह कहते हैं- थोड़ा और ऊँघ लेने दो भाई, इतनी भी क्या जल्दी है !
तृष्णा 'तृष्णा-बोध' से ही जर्जर होती है । वैराग्य प्रकृति-की- गुणधर्मा लिए प्रकृति की हर अभिव्यक्ति 'पर' तृष्णा के सर्वथा समाप्त हो जाने को चैतन्य - क्रान्ति है ।
तृष्णा से ऊपर उठना है । आत्मा के है और योग-दर्शन प्रकृति के गुणों में 'पर- वैराग्य' कहता है । 'पर- वैराग्य'
एक सन्त- महिला हुई हैं- विचक्षणश्री । वह साधुता के अर्थों में सौ टंच खरी उतरी । उस साध्वी को कैंसर की व्याधि ने घेरा, औरों की अपेक्षा उसकी व्याधि कुछ अधिक ही भयंकर रही । पर उसके चेहरे पर समाधि मुस्कुराया करती । डाक्टर चकित थे, वह देहातीत थी । सहिष्णु रही हो, ऐसी बात भी नहीं है । व्याधि के असर से, दर्द की अनुभूति से ऊपर उठा लिया था उसने अपने आपको ।
प्रकृति से स्वयं की अलग अस्मिता मानने-जानने वाला न केवल देह से, मन से भी मुक्त हो जाता है । फूल खिलता है अपनी निजता से । निजत्व के प्रति अभिरुचि ही भेद-विज्ञान की नींव है, पर वैराग्य की बुनियाद है । पर वैराग्य हमेशा पुरुष के ज्ञान से, आत्मा के बोध से साकार होता है- तत्परं पुरुषख्यातेः गुणवैतृष्ण्यम् ।
साधक को जब पर-वैराग्य की प्राप्ति हो जाती है, तब वह अपने स्वभाव-सिद्ध अधिकारों में रमण करता है । वह पदार्थ से ही उपरत हो जाता है । सिर्फ संसार के ही पदार्थ नहीं, वह स्वयं से जुड़े पदार्थों से भी ऊपर उठ जाता है । प्रकृति जो अणु बनकर उसके साथ जुड़ी थी, उसके साथ उसका लगाव टूट जाता है । दोनों के भेद - विज्ञान की प्र का नाम ही 'विराम प्रत्यय' है । जड़ और चैतन्य -
दोनों के बीच विराम
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