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चैतन्य-बोध : संसार से पुनर्वापसी
जीवन के उस मूल स्रोत को, जहाँ से जीवन की धारा बही है ।
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अपने शैशव की ओर अपनी दृष्टि दौड़ाओ । हम बच्चे रहे, लेकिन बच्चे से पहले क्या थे ? उससे पहले माँ के गर्भ में थे । जीवन-निर्माण की एक नौ-मासी यात्रा वहाँ पूरी की है हमने । उस यात्रा का प्रस्थान - बिन्दु क्या है ? यूं तो कोई भी स्वीकार नहीं कर सकता कि सागर सर्वप्रथम सिर्फ एक बूँद रहा । सागर बूंद का ही विस्तार है । जब जीवन के नाभि-स्रोत को ढूँढोगे, तो हम स्वयं को एक अणु का विस्तार ड़ी पाएँगे । अणु प्रकृति की पहली और सबसे छोटी इकाई है । हमारा शरीर उसी एक अणु का पल्लवन है । आखिर हर बरगद का भविष्य बीज में ही समाहित होता है ।
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बीज मूल है और बरगद उसका तूल । अब बात को तूल मत दो, मूल पर लौट आओ । मूल का पहला अंश अणु है, पर जीवन-की-संहिता अणु के पार भी झाँकने के लिए प्रेरित करती है । अणु के पहले हम एक अदृश्य आत्मा रहे हैं । अदृश्य आत्मा ने अणु में प्रवेश किया और बीज बरगद बनने के लिए गतिशील हुआ । अणु की विकास-यात्रा उसकी विभु-यात्रा है । वह विभु भी है, मूल रूप में अणु भी । इस तरह जीवन के मूल स्रोत दो तत्त्वों में सांयोगिक हैं- एक है आत्मा और दूसरा है अणु । नजर मुहैय्या होने वाला जीवन उसी आत्मा और अणु का 'कर्मी सम्मेलन' है ।
आत्मा पुरुष है, अणु प्रकृति । हर मनुष्य अर्द्धनारीश्वर है । उसमें पौरुष भी है, स्त्रैण - गुण भी है । 'शंकर' का आधा शरीर शिव बनाम पुरुष का है और पार्वती बनाम स्त्री / प्रकृति का है । शंकर के द्विभागी देह-चित्र इसी अर्थ के प्रतीक हैं ।
आत्मा और अणु, पुरुष और प्रकृति- दोनों में फर्क समझ लेना ही भेद - विज्ञान है । भेद-विज्ञान दोनों के बीच विभाजक रेखा खींचता है । प्रकृति के गुणों में आनन्द की किरण ढूंढना 'मृग-तृष्णा' है । 'मृग' तृष्णा का आधार है । किरण को जल स्रोत मान, पेड़ की छाँह को तरैया मानना, कस्तूरी को दिशाओं में ढूंढना - मृग के ये कर्तृत्व ही तो तृष्णा के व्यक्तित्व
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