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________________ वृत्ति : बोध और निरोध १०७ जुड़ी हैं । जब तक आत्मसात् न हो जायें तब तक सिर्फ वाणी-विलास लगती है । अभिव्यक्ति बलवती तो तब होती है, जब वह अनुभूति के सांचे से ढलकर गुजरती है । अभ्यास से सब कुछ सहज होता है, अगर बाहर में राहों को तलाशती आँखें जरा भीतर मुड़ जायें, तो जीवन के देवदार वृक्षों पर बड़ी आसानी से चढ़ सकोगे और स्वयं की सम्भावनाओं को साकार भी कर सकोगे । जीवन के बाहरी दायरों में आनन्द को ढूंढती निगाहों को थोड़ा समझाओ | आकर्षण और विकर्षण से थोड़ा ऊपर उठो और साधो स्वयं को प्रयत्नपूर्वक 'अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः' । चित्त की वृत्तियों का विरोध अभ्यास और वैराग्य से सम्पन्न होता है । यदि जीवन के अन्तर-विश्व का ग्लोब बड़ी बारीकी से पढ़ना है तो चित्त-वृत्तियों के कोहरे के धुंधलेपन को पहले साफ करना होगा । हम देखना तो चाहते हैं हिमालय के इन बर्फीले पर्वतों को, पर ये जो कोहरा छाया है, वातावरण में जो ओस घिरी है, तो कहाँ से दिखाई देंगे वे । अनुमान से अगर हल्की-सी झलक भी पा लो, तो बात अलग है । पत्ते की बात तो कोहरे के हटने पर ही निर्भर है; इसलिए सबसे पहले हम समझें कोहरे को, कोहरे के कारणों को, चित्त को, चित्त की वृत्तियों को । चित्त के टीले इसी हिमालय की तरह लम्बे-चौड़े और बिखरे-बसे हैं । चित्त के धरातल पर उसके अपने समाज हैं, विद्यालय हैं, खेत-खलिहान हैं, पहाड़ी रास्ते हैं । उसका अपना आकाश है और अपना रसातल है । वहाँ वसन्त के रंग भी हैं और पतझड़ के पत्र-झरे वृक्ष-कंकाल भी । चित्त की अपनी सम्भावनाएं होती हैं । आखिर सबका लेखा-जोखा दो टूक शब्दों में तो नहीं किया जा सकता । जहां वर्णन और विश्लेषण करते हुए आदमी थक जाता है, वहाँ सीमा पर अनन्त शब्द उभरने लगता है । इसलिए यही कहना बेहतर होगा कि चित्त की वृत्तियाँ अनन्त हैं यानी इतनी हैं जिन्हें न गिना जा सकता है, और न मापा जा सकता है । पर हाँ, अगर ध्यान दो तो चीन्हा अवश्य जाता है । हिमालय में बैठे हैं हम, पर कुदरत के रंग कितने तब्दील होते जा रहे हैं । कुदरत के सौ रूप दिन-भर में दिखाई देते हैं । चित्त के भी ऐसे ही खेल होते हैं । महावीर ने चित्त-वृत्तियों को समझने के लिए एक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003892
Book TitleChale Man ke Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1993
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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