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दिया. कहा 'यह भार हम साथ ढोना नहीं चाहते हैं, तुम अपने पास रखो, सुबह लिफ्ट सही होगी तब हमें पहुँचा देना ।'
दोनों ने चढ़ाई प्रारम्भ कर दी, करीब चालीस तल्ले पर पहुँच पाये होंगे कि रात के डेढ़ बज गये । चढ़ते-चढ़ते दोनों का सांस भर आया। फिर भी साहस कर चढ़ने लगे, सोचा अब तो बीस मंजिल ही शेष हैं। चढ़ते-चढ़ते पचास मंजिल भी पार कर गये । कुछ समय बाद जब वे पचपनवीं मंजिल पर थे,एक ने कहा, 'दोस्त, रूम की चाबी लाये हो?'
दूसरे ने कहा, 'चाबी, ओह! चाबी तो कोट की जेब में ही रह गई।' पहले ने कहा, 'सोचो दोस्त,हम पहली मंजिल पर हैं या पचपनवीं पर।'
महावीर हाथ में चाबी थमाना चाह रहे हैं | आत्मा की चाबी और चाबी को संभाल कर चलने का साधन ध्यान है अन्यथा आत्म-पहचान के अभाव में की जाने वाली साधना, मंजिल हासिल नहीं करा सकती। सारे जहाँ में भटक कर व्यक्ति वापिस वहीं पहुँचता है, जहाँ से उसने यात्रा प्रारम्भ की है | कोल्हू के बैल की तरह है उसकी यात्रा, जो सुबह से सांझ तक चलता रहता है वर्तुलाकार, पर सांझ को वहीं पहुँचता है जहां से यात्रा प्रारम्भ की। __ महावीर कर्म के ईंधन को, ध्यान रूपी अग्नि से जलाना चाह रहे हैं। कर्म रूपी ईंधन, इसे समझें | आत्मा वैसे तो पूर्णतया स्वतंत्र है, सब गतिविधियों का संचालन करती है, पर फिर भी बंधी है कर्मों से । वे कर्म चाहे शुभ हो या अशुभ । खास बात यह नहीं है कि आत्मा शुभ कर्मों से बंधी है या अशुभ से, पाप से बंधी है या पुण्य से | यहाँ चर्चा पाप और पुण्य की नहीं, शुभ और अशुभ की नहीं, बंधन की है। ध्यान के मार्ग में महावीर केवल पाप से ही मुक्ति नहीं दिलाना चाहते, अपितु पुण्यातीत भी बनाना चाहते हैं | बंधन आखिर बंधन है, चाहे लौह-शृंखला का हो या स्वर्ण-शृंखला का,
शक्कर भरी हो चाहे, धूल भरी हो । सोने की सांकल हो या लोहा जड़ी हो । शुभाशुभ दोनों त्याग शुद्ध बन जाइये ।
अपने को पहले बिल्कुल खाली बनाइये ।। महावीर ने ईंधन, कर्म का कहा, पाप का नहीं कहा | इसे गहराई से समझें । हम जितने धार्मिक कृत्य करते हैं, सब पुण्य के लिये करते ८६/ ज्योति कलश छलके : ललितप्रभ
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