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हैं, स्वर्ग के लिये करते हैं । महावीर पुण्य को भी एक कर्म मानते हैं
और स्वर्ग को भी संसार मानते हैं । इसलिये वे कहते हैं, कर्म रूपी ईंधन, फिर चाहे वह शुभ हो या अशुभ । जैसे समाधि में प्रवेश करने के लिये, शुभ और अशुभ दोनों विचार त्याज्य हैं, वैसे ही निर्वाण की ज्योति जलाने के लिये, पाप और पुण्य दोनों से मुक्ति आवश्यक है और इस कर्म ईंधन को जलाने के लिये, महावीर ध्यान की अग्नि का प्रयोग कर रहे हैं । ध्यान सधुक्कड़ी मस्ती है | एक ऐसी मस्ती जिससे दूर हो जाते हैं तनाव, तृष्णा, आंकाक्षा और आसक्तियाँ । __ अवसर हाथ लगा है, ध्यान में प्रवेश करने के लिये । कल से ही धीरे-धीरे ध्यान से जीना सीखें । जिस वैभव को ढूंढने के लिये बाहर भटक रहे हो, वह वैभव तुम्हारे भीतर है | पहचानो अपने आत्म वैभव को, 'ओ रम्भाती नदियों, बेसुध कहाँ भागी जा रही हो, बंशीरव तुम्हारे भीतर है ।' कस्तूरी कुण्डल बसै, तुम्हारे अन्तर में है वंशी की आवाज, कुण्डली में है कस्तूरी और भीतर है अनन्त वैभव | अगर उस आत्म-वैभव को उजागर कर लिया, तो सच कहता हूँ उस वैभव के सामने, सिकन्दर का सिर भी शर्म से झुक जायेगा ।
अभी भी समय है, अपनी शक्ति का पुरजोर उपयोग करो । डूबो ध्यान में, उतरो समाधि में । खो जाओ, रम जाओ | शुरू कर दो बजाना अपनी अन्तर वीणा को, ध्यान की अंगुलियों से, अन्यथा वीणा बेकार चली जाएगी । संगीत मात्र वीणा से नहीं, अंगुलियों की कृपा से प्रगट होता है । अगर ऐसा न किया, अपने तारों को न छेड़ा तो वीणा मृत रह जाएगी, संगीत सोया/दबा रह जाएगा । जैसे वृक्ष में बीज दबा रह गया, जैसे आवाज कंठ में अटकी रह गयी, जैसे प्रेम हृदय में बंद रह गया, जैसे कली खिलने को थी, खिल न पायी । कली खिल न पायी, सुगंध बिखर न पायी ।
सर्वोदय हो साक्षी-भाव का/८७
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