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चाहे सक्रिय ध्यान हो, कुण्डलिनी, नटराज, नादब्रह्म या विपश्यना - चाहे जो ध्यान हो, आखिर सभी ध्यान मनोमुक्ति बनाम कर्म- मुक्ति के लिये ही हैं । महावीर ने भी चित्त की चंचलताओं पर काफी चर्चा की थी और ठेठ तल तक गये । बारह वर्षों तक, जो साधक ध्यान और समाधि को समर्पित रहा हो, भला उसके कर्म ईंधन क्यों न जलेंगे । जब महावीर ध्यान की परम अवस्था में पहुँचे उसी क्षण, अपरिमित कर्म ईंधन, क्षण भर में भस्म हो गया । उन्होंने परम ज्ञान प्राप्त कर लिया, जिसे हम केवल ज्ञान कहते हैं ।
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केवल ज्ञान का अर्थ मात्र उस ज्ञान से मत जोड़ना, जो अतीत और भविष्य को जानता है । केवल ज्ञान का अर्थ है, जो वर्तमान को जानता है, वर्तमान की, अनुपश्यी है । जो केवल एक को जानता है, अपने आप को जानता है । इसलिये केवल ज्ञानी का अर्थ हुआ, जिसने अपने आप की खोज कर ली है । जगत का ज्ञाता तो हर कोई हो सकता है, लेकिन आत्मज्ञ केवल ज्ञानी ही होता है । सर्वज्ञ वह नहीं जो सबको जानता है, सर्वज्ञ वह है जो स्व को जानता है, अपने आपको जानता है । ऐसे लोगों के लिये ही तो महावीर कहा करते थे, 'जे एगं जाणई, सव्वं जाई ।'
जो एक को जानता है, वह सबको जानता है । जिसने एक को, अपने आपको भलीभांति नहीं पहचाना, वह दुनिया की पहचान कैसे कर पायेगा। महावीर ध्यान के माध्यम से, उस एक की पहचान कराना चाहते हैं। बिना आत्म तत्त्व की पहचान के सारी ध्यान-साधनायें ऐसी हैं जैसे बिना एक के सौ शून्यों का प्रयोग । इस साधना के मार्ग में अगर आत्मा की कूंची साथ लेकर न चढ़े, तो ठेठ ऊपर पहुँच कर भी वापस लौटना पड़ेगा क्योंकि वहाँ ताला बन्द मिलेगा । अगर चाबी भूल आये तो वापस लौटना पड़ेगा ।
मैंने सुना है, दो दोस्त भारत से अमेरिका गये । किसी सत्तर मंजिली होटल में ठहरे थे । साठवीं मंजिल में उन्हें रूम मिला । रात को नाइटशो देखने चले गये । साढ़े बारह बजे वापिस लौटे । लिफ्ट मैन से ज्ञात हुआ कि किसी कारणवश लिफ्ट खराब हो गई है । अपने रूम तक जाने के लिये सिवाय सीढ़ियां चढ़ने के कोई उपाय न था । उन दोनों ने सोचा, चलो, पैदल ही चढ़ते हैं ।
रवानगी से पहले उन्होंने अपना कोट उतार कर वाच मैन को दे
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सर्वोदय हो साक्षी भाव का / ८५
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