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________________ ध्यान आत्मचिन्तन का साधन है । साधारणतः हम चेतना को शरीर की इच्छाओं से जोड़ते हैं, पर यदि ऐसा होता तो हम मात्र यंत्र ही होते। चीन और जापान में ध्यान परम्परा के संस्थापक, बोधिधर्म माने जाते हैं । भारतीय ध्यान परंपरा को सर्वप्रथम बोधिधर्म ही वहाँ लेकर गये थे । कहते हैं एक बार सम्राट वू ने बोधिधर्म से पूछा, 'पवित्र परमसत्य क्या है ? बोधिधर्म ने कहा, 'यह शून्य है, पवित्रता का कोई अर्थ नहीं है ।' तो सम्राट ने पूछा, 'फिर सामने यह कौन खड़ा है ?' बोधिधर्म ने कहा, 'मैं नहीं जानता।' जैसे मन्त्र परम्परा में बीज, मन्त्र या अक्षर होते हैं, वैसे ही बोधिधर्म का शून्य भी, बीज शब्द है जिसका अर्थ है-परमचेतना। ध्यान इसी परम चेतना से साक्षात्कार करने का साधन है। महावीर ने कहा, 'जैसे चिर संचित ईंधन को वायु से उद्दीप्त आग तत्काल जला डालती है ।' यह उपमा ध्यान की शक्ति को उजागर करने के लिये है | चाहे लाखों लीटर पेट्रोल हो लेकिन अगर अग्नि का संस्पर्श हो गया हो, तो वह अपना अस्तित्व बचा नहीं पायेगा । जलना उसकी अनिवार्यता हो जायेगी । चाहे जितना ईंधन इकट्ठा किया हो, अग्नि उसे भी समाप्त कर देगी क्योंकि अग्नि का काम ही ईंधन को जलाना है | जैसे काल के पंजों में चाहे पूरा संसार भी फंस जाये, तो भी बच नहीं सकता, वैसे ही अग्नि के संस्पर्श से ईंधन नहीं बच सकता । महावीर साधकों के लिये, ऐसी ही ध्यान की अग्नि जलना चाहते हैं । ध्यान वह द्वार है, जो स्वयं का स्वयं से ही परिचय करवाता है । चाहे ज्ञान का यात्री हो, चाहे प्रेम का, अन्ततःतो ध्यान का सहारा ही लेना पड़ेगा । ये संसार के जितने भी मार्ग हैं, सब ध्यान के ही विभिन्न रूप हैं । ध्यान का अर्थ हुआ एकाग्रता | चाहे प्रार्थना हो, पूजा हो, उपासना हो, भक्ति हो या संन्यास हो, आखिर एकाग्रता की आवश्यकता तो होगी ही । जब तक चित्त मौन न होगा, निर्विचार न होगा तब तक पूजा, प्रार्थना और उपासना केवल शरीर और मन तक सीमित रह जायेगी, चैतन्य शक्ति से उनका सम्बन्ध जुड़ नहीं पायेगा । शक्ति, समय और संकल्प तीनों ही समर्पित कर दें ध्यान को | _महावीर ने कहा, 'ध्यान रूपी अग्नि, अपरिमित कर्म ईंधन को क्षण भर में भस्म कर देती है ।' बड़ी गहरी बात कही है महावीर ने ; कर्म के ईंधन को जलाने में, ध्यान सर्वाधिक कारगर सिद्ध हो सकता है | ८४/ ज्योति कलश छलके : ललितप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003891
Book TitleJyoti Kalash Chalke
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1993
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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