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विचारों से मक्ति का उपाय क्या है ? महावीर इसके लिए कहते हैं, साक्षी-भाव । महावीर के ध्यान-दर्शन का सार है यह । जब तक साक्षी भाव नहीं आयेगा, तब तक विचारों से मुक्ति सम्भव नहीं है
और बिना विचार-मुक्ति के ध्यान में प्रवेश ही कैसे होगा ? साधारणतः प्रत्येक मनुष्य विचार की गति के साथ गतिमय होता है । विचारों से पैदा होने वाली अशान्ति का अनुभव उसे इसलिए नहीं हो पाता क्योंकि गति पर रोकथाम नहीं लगायी जाती | जब व्यक्ति रुककर, दौड़ को थामकर, विचारों को देखता है तभी व्यर्थ की भाग-दौड़ का पता चलता है | जो स्वयं विचारों की भाग-दौड़ में शामिल है, भला उसे कैसे ज्ञान हो पायेगा, भाग-दौड़ की व्यर्थता का ?
विचारों की प्रक्रिया के प्रति आप मात्र दर्शक का भाव रखें । साक्षी का भाव रखें, सिवा देखने के और कोई सम्बन्ध ही नहीं है विचारों से। जब विचारों के बादल मन के आकाश को घेरें या उसमें गति करें, तो उनसे स्पष्टतः पूछा जाये कि तुम कौन हो और तुम्हारा अस्तित्व क्या है ? क्या तुम मेरे हो ? स्पष्टतः उत्तर मिलेगा, हम तुम्हारे अतिथि हैं, तुम्हारे नहीं हैं।
विचारों को साक्षी भाव से देखने से क्रमशः उनसे सम्बन्ध टूटेगा। जब वासना उठे या विचार उठे, तब ध्यान इस बात का रखें कि वासना उठ रही है या विचार उठ रहे हैं । क्रमशः इस प्रकार आप पायेंगे कि वासना विगलित हो रही है और विचार भी । साक्षी-भाव में, इस निर्विचार समाधि में, विचार अपने आप विलीन हो जायेंगे और विचार-शक्ति का उद्भव होगा | इसी विचार शक्ति का नाम, प्रज्ञा है।
महावीर ने साक्षी-भाव को, जीवन में पल-पल घटित करने की प्रेरणा दी । इसी को ध्यान और त्याग कहा । इसीलिए महावीर ने साधना का श्री गणेश सम्यक् दर्शन से किया । अगर दर्शन-शुद्धि है तो जीवन-शुद्धि है, बिना दर्शन के न ज्ञान होता है, न चारित्र होता है, न तप होता है। इसलिए महावीर ने सुनने और पढ़ने पर ज्यादा जोर नहीं दिया, उन्होंने देखने पर जोर दिया । चिंतन से अधिक दर्शन को बल दिया । विचार नहीं दर्शन । जैसे-जैसे दर्शन शद्धि होती है वैसे-वैसे विचार क्षीण होते जाते हैं । जब व्यक्ति साक्षी में जीता है तो स्वप्न स्वयं विलीन हो जाते हैं।
दीप जलेंगे, बुझा करेंगे, तारों में टिमटिम होगी । ८०/ ज्योति कलश छलके : ललितप्रभ
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