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से जब सभी क्रियाएं समाप्त हो जाती हैं तो, ध्यान सधता है । अतः ध्यान कोई क्रिया नहीं है, आडम्बर नहीं है । हकीकत तो यह है कि क्रिया-मुक्ति ही ध्यान है । यदि क्षण भर के लिए भी हम कुछ न करें, पूर्ण विश्राम में प्रवेश करें, तो ध्यान सधेगा | अगर एक दफा भी सफलता हाथ लग गयी तो जब तक ध्यान में जीना चाहें, जी सकेंगे।
अगर एक बार व्यक्ति यह बोध प्राप्त कर ले कि अंतरंग कैसे अनुद्वेलित हो सकता है, तो वह होश को साधते हुए धीरे-धीरे अन्तर-जगत की क्रियाएं प्रारम्भ कर देगा । सर्वप्रथम होने मात्र की कला सीखें, फिर छोटे-छोटे कृत्यों को सहजता से करने की । जैसे भोजन बनाना, बर्तन साफ करना, स्नान करना आदि, इन्हें करते हुए स्वयं को केन्द्रीभूत बनाये रखना, यही ध्यान का पूर्वाभ्यास है । पाप-पुण्य क्रिया में नहीं, यतना-अयतना में है। ___ छोटे-छोटे कृत्यों से अपने साक्षीभाव को पुष्ट करें । एक-एक बँद का समूह सागर बन जाता है । एक-एक किरण के जुटने से महासूर्य का जन्म हो जाता है । ऐसे ही छोटी-छोटी समझ, छोटी-छोटी अन्तर-दृषट को एकत्रित करें, यही धीरे-धीरे समाधि के राजमार्ग पर पहुंचाएगी ।
जिन लोगों ने ध्यान को जीवन-विरोधी या कृत्य-विरोधी माना वे अपने-आपसे विरोध कर बैठे हैं | ध्यान न तो जीवन से पलायन है और न ही भगोड़ापन | ध्यान तनाव-मुक्ति एवं चित्त-शुद्धि का स्वाभाविक साधन है । ध्यान में जीवन का प्रवाह थमता नहीं है और अधिक त्वरा से जारी रहता है, जीवन कहीं अधिक आनन्दपूर्ण, स्पष्टतापूर्ण, और सृजनात्मकतापूर्ण होता है । विशेषता यह रहती है कि सब कुछ करते हुए भी, आत्मा निर्लिप्त रहती है। वह अपने निकटवर्ती सूत्रों के साथ घटित होने वाली घटनाओं का सहजतया अवलोकन करती है, पर्वत के शिखर पर खड़े हुए द्रष्टा की भांति । ___ यह बात गौरतलब है कि ध्यान कृत्यों से छुटकारा नहीं दिलाता, कर्तृत्व-भाव से दिलाता है । एक आम नागरिक की तरह, ध्यानी भी वे सभी कृत्य करता है जिनकी जीवन में अनिवार्यता है, पर दिशा भिन्न होती है | वहाँ नजरें वे नहीं होतीं जिनमें संसार की छाया हो । उसके हर कृत्य मे एक सजगता होगी, साक्षी-भाव का सहारा लिये । उस साधक के द्वारा अगर मक्खी को भी उड़ाया जा रहा है, तो कृत्य इतना सहज सरल होगा मानो मक्खी अपनी ही आत्मा हो । मक्खी का उड़ना
७८/ ज्योति कलश छलके : ललितप्रभ
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