________________
सीधे तलहटी में पहुँच जाओगे । ध्यान कैसे करें ? मन को एकाग्र करना, ध्यान की शुरूआत है और मन से मुक्ति, ध्यान का अन्तिम चरण है। महावीर कहते हैं कि मन हमेशा निर्णय से निर्मित होता है। किसी ने सुख दिया, हमने उसके लिये शुभ कामनाएं दीं और जिसने दुःख दिया, उसके लिये बदुआएं दीं । जहाँ-जहाँ निर्णायक स्थिति होती है वहां-वहां मन की चंचलता और बढ़ती जाती है । __महावीर ने प्रव्रजित होने के बाद करीब बारह वर्ष तक साक्षी-भाव
और द्रष्टाभाव में जीने की कोशिश की । अगर अप्सराओं ने आकर उनके शरीर को सहलाया, तो भी ध्यान में डूबे रहे और अगर किसी ने कानों में कीलें ठोकी, तो भी ध्यान में डूबे रहे । न अप्सराओं के प्रति राग पैदा हुआ और न ही कानों में कील ठोंकने वाले ग्वाले के प्रति द्वेष।
महावीर साधक को साक्षी-भाव में इसलिए लाना चाहते हैं क्योंकि साक्षी-भाव में पहुँचकर, साधक स्थितप्रज्ञ होता है । ___ महावीर ध्यान की अग्नि से कर्म-ईंधन को जलाना चाहते हैं | कर्म ईंधन को भस्मिभूत करने का सबसे कारगर उपाय है, साक्षी-भाव में जीना । जो है, वह है, उससे अलिप्त रहना यही साक्षी-भाव है । न वहां राग होता है और न द्वेष होता है | मधुर की तृष्णा नहीं, कडुवाहट से वैर नहीं, ये सब ही तो साधकों के चरण हैं। ___ साक्षीभाव कर्म-ईंधन को जलाता है क्योंकि साक्षी-भाव में राग और द्वेष दोनों का अभाव होता है और महावीर कहते हैं, 'रागो य दोसो बीय कम्म बीयं' राग और द्वेष कर्म के बीज हैं । संसार की फसल इन दो बीजों से होती है । ये दो बीज नष्ट हो गये तो अपने आप कर्म समाप्त हो जायेंगे | साक्षीभाव ध्यान है और ध्यान, कर्म रूप ईंधन को जलाने का साधन है । साक्षीभाव में किया कुछ नहीं जाता है, सब कुछ होता है, सहज स्वाभाविक । __ जीवन का विशुद्ध आनन्द होने में अधिक है, करने में कम है | जब हम कुछ नहीं करते हैं, तब आनन्द का झरना झरता है | अगर इस झरने के उत्स को ढंढेंगे कि यह कहां से बहता है तो उलझन में फंस जाएंगे । यह हर ओर से बहता है, दसों दिशाओं से झरता है ।
ध्यान करना नहीं, होना है, जीना है | मन, वचन और शरीर तीनों
सर्वोदय हो साक्षी-भाव का/७७
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org