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पर काँटे उससे पहले ही गड़ गये हैं । राग और द्वेष मन के दो विकल्प हैं । ये ही दो ऐसे तत्त्व हैं, जो आम संसारी को रागी, साधक को विरागी और साध्य को वीतरागी सिद्ध करते हैं । राग, विराग और वीतराग में फर्क है, इसके रहस्य को समझें । राग संसार है, विराग संन्यास है और वीतराग समाधि है । विराग में राग-मुक्ति तो होती है लेकिन द्वेष-मुक्ति नहीं । स्थिति ऐसी होती है, जब संसार में थे पैसे से राग था , जब संन्यास में हैं तो उसी से द्वेष हो गया । जब दुनिया में थे तो स्त्री के प्रति आसक्ति थी और जब संन्यास में आए तो उसी के प्रति द्वेष पैदा हो गया, निरादर की भावना पैदा हो गई । वीतरागी साधक वह है, जो हर उपलब्धि में भी साक्षी-भाव में जी रहा है । __ ऐसा ही हुआ, गुरु और शिष्य, दोनों पदयात्रा कर रहे थे । बीच में नदी आ गई। नदी में पानी अधिक गहरा नहीं था, फिर भी नाभि तक तो था ही । दोनों ने सोचा, चलो, नदी पार कर लें । पास में एक युवती खड़ी थी। उसने गुरु से कहा, 'महाराज ! आप उस पार जा रहे हैं । मुझे भी उस पार जाना है, पर नदी पार करते भय लगता है। कृपया, मेरा हाथ पकड़कर उस पार ले चलें ।
गुरु आगबबूला हो गये । कहने लगे, 'तुझे शर्म नहीं आती है, हम साधु जो स्त्री को छू भी नहीं सकते हैं, भला हाथ कैसे पकड़ सकते हैं?' गुरु ने स्त्री को बुरा-भला कहा और पार जाने के लिए पानी में उतर गया।
शिष्य अभी भी इस पार था युवती ने उससे भी प्रार्थना की । उस युवा संन्यासी ने सोचा, भला इसे उस पार ले जाने में क्या आपत्ति है
और यह भी सोचा जब दोनों को ही नदी पार करना है तो क्यों न एक के ही वस्त्र गीले. किए जाएं । अगर उसे मेरा हाथ पकड़ने में कोई खतरा नहीं है, तो मुझे उसका हाथ पकड़ने में क्या खतरा ? उसने युवती को कंधे पर बैठाया और नदिया के उस पार ले गया । युवती ने आभार ज्ञापन किया और अपने घर की ओर रवाना हो गई और साधु अपने मार्ग पर चला गया । तीन-चार मील चला होगा कि गुरु ने पूछा 'तूने उसे कंधे पर क्यों बैठाया, क्या यह साधु का धर्म है ?'
शिष्य ने कहा, 'किसे ?'
गुरु कहने लगा, 'जिसे मैंने छूने से भी इंकार कर दिया था उस युवती को ।' ७४/ ज्योति कलश छलके : ललितप्रभ
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