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मन आत्म और अनात्म पदार्थ के बीच रहने वाला विशेष तत्त्व है, कहने में यह भले ही जड़ हो, लेकिन कभी-कभी तो इसकी शक्ति आत्म-शक्ति को भी दबा देती है | चंचल अवस्था में इसकी गति जहां हर गति से बढ़कर है, वहीं शांत मन ध्यान में और अधिक सहयोगी होता है । मन विकारी है । इसका कार्य ही संकल्प-विकल्प करना है | यह जिसको भली-भांति ग्रहण करता है, स्वयं उसी में तदाकार भी हो जाता है।
अतीत के खण्डहर और भविष्य की कल्पनाएं यही जिन्दगी है । मन, अतीत और भविष्य के बीच का वह पेंडुलम है, जो कभी अतीत की ओर जाता है तो कभी भविष्य की ओर | बीते को बिसराना और भविष्य की चिन्ताओं से मुक्त होना, वर्तमान में जीने के लिए उठाये जाने वाला पहला कदम है। चाहे अतीत हो या भविष्य दोनों ही व्यक्ति को भटकाते हैं । साधक वह है, जो सजगता के साथ वर्तमान का उपयोग करता है। जिंदगी की जिंदादिली वर्तमान का उपयोग करने में ही है | ___ अतीत की पुनर्वापसी असंभव है और भविष्य की आकांक्षाओं की पूर्ति हाथ के बाहर है । ऐसी स्थिति में वर्तमान का पाई-पाई उपयोग, जीवन में अहोभाव पैदा कर सकता है । वर्तमान में जीना, मन की चंचलता को समाप्त करता है । मन को वही बदल सकता है, जिसने बदलने का अभ्यास किया है । व्यक्ति वर्तमान की चिंता कम और भविष्य की अधिक करता है, यह जानते हुए भी कि आनेवाला कल उसका निर्माण भी कर सकता है और विनाश भी ।
अगर पुनर्जन्म का सिद्धांत सही है, तो कहना पड़ेगा कि व्यक्ति हर जन्म में ही बीते कल को याद करता रहा है और आने वाले कल की चिन्ता करता रहा है । भविष्य के वैभव को, सपनों में निहारकर वर्तमान खोता रहा - न कोई जादा न कोई मंजिल न रोशनी का सुराग ।
भटक रही है खलाओं में जिंदगी हर बार ।। जिंदगी में कोई रास्ता तो हाथ लगा ही नहीं। पता नहीं कितनी दफा अंधेरी थाटियों में जिंदगी खो चुके हैं, लेकिन न तो मंजिल हाथ लगी, न रोशनी का सुराग ।
व्यक्ति राहत के लिए स्वयं मंजिलें बनाता है | चाहे वे मंजिलें और
सर्वोदय हो साक्षी-भाव का/७१
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