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________________ व्यक्ति के, मन के संवेग तभी विपरीत धर्मी बनते हैं, जब विपरीत वातावरण उसके सामने उपस्थित होता है, प्रत्येक विपरीत वातावरण में, अपने आपको अनुपस्थित समझना या स्वयं को साक्षी भाव या दृष्टाभाव में स्थित कर लेना, मानसिक एकाग्रता का प्रथम और आवश्यक साधन है | हम प्रशंसा से प्रसन्न होते हैं, भले ही वह झूठी हो । किसी स्त्री को तुम सुंदर कह दो वह खुश होगी । सच तो यह है कि जब हम क्रोध में होते हैं, तब कुरूप होते हैं, जब क्षमा में होते हैं तब सुंदर होते हैं । तुम नहीं जानते हो जब तुम क्रोध करते हो तब तुम्हारा मन ही नहीं, तुम्हारा चेहरा भी कितना विकृत हो जाता है । कभी क्रोध करने के तत्काल बाद जाकर आइने में अपना चेहरा देखो, वीभत्सता दिखाई देगी । और कभी क्षमा-भाव में भी आइने पर नजर डालो, चेहरे पर सौन्दर्य झलकेगा | आखिर क्रूरता और करुणा में कुछ तो फर्क होता ही है । 1 1 . आज के सूत्र में, महावीर ध्यान पर चर्चा करने से पूर्व, मानसिक एकाग्रता पर जोर दे रहे हैं । आखिर हमें वे सूत्र भी ढूंढने होंगे, जिनसे चंचल मन का निग्रह किया जा सके । गीता के कृष्ण कहते हैं 'अभ्यासेन.. . अभ्यास और वैराग्य से चंचल मन का निग्रह किया जा सकता है ।' जैसे-जैसे व्यक्ति एक क्रमिक अभ्यास के द्वारा स्वयं को राग से विराग की ओर गति देता है, वैसे-वैसे वह वीतरागता के समीप पहुँचता है । मन को एकाग्र करने के लिए कुछेक साधन भी हैं - पहला साधन है, भोगों से वैराग्य । व्यक्ति अपने आपको धीरे-धीरे भोगों से भी निर्लिप्त करने का प्रयास करे । संसार में तो जनक भी रहे थे, भरत भी रहे थे लेकिन उन्होंने संसार में भी समाधि के सूत्र ढूंढे । मैं यह भी नहीं कहता कि संसार छोड़कर जंगल में जाकर बस जाओ । क्योंकि ऐसा करने से, आज जिनके साथ तुम्हारा रागात्मक संबंध है, उनके साथ द्वेषमूलक संबंध स्थापित हो जायेगा । वैराग्य का अर्थ यह तो नहीं है कि तुम किसी के राग को द्वेष में बदल दो । जैसे राग, वैराग्य का विपरीत धर्मी तत्त्व है, वैसे ही द्वेष भी विपरीत धर्मी है । इसलिए वीतराग वह है, जो राग और द्वेष दोनों से मुक्त हो है | अगर भोगों से व्यक्ति अपने आपको क्रमशः उपरत करेगा तो, परिणाम यह होगा कि व्यक्ति का राग भाव कम होगा और द्वेष भाव पैदा नहीं हो पायेगा | मन की एकाग्रता के लिए हमें मन की क्रियाओं पर विचार करना मन : चंचलता और स्थिरता / ६३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003891
Book TitleJyoti Kalash Chalke
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1993
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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